Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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इ. सबे डयालीस भेया मया ॥४॥ ५०/8| अर्थः-संज्ञी पंचेद्रिय, अने असंज्ञी पंचेद्रियं प्रत्येकना जलचर, स्थलचर, खेचर, उरः परिसर्प, भुजपरिसर्प ए पांच भेद
| होवाथी दश भेद थाय छे अने पर्याप्त अने अपर्याप्त ना भेदयी २० भेद थाय छे, सर्व मळी तिर्यंचना ४८ भेद थायछ.।४। | पंचदसकम्मभूमीय सुविसालयातीसअक्कम्मभूमी असुह
कारया । अंतरदीवा तह पवर छप्पण्णयं मिलिय सय महियमेगेण नरठाणयं ॥५॥ ___अर्थः-सुविशाल एवी पंदर कर्म भूमीमां उत्पन्न थयेला अने मुख करवावाळी त्रीश अकर्म भूमिमा उत्पन्न ययेला अने छपन्न अंतर द्वीपमा उत्पन्न थयेक मनुष्योना १०१ भेद थाय छे. ॥ ५॥
तत्थ अपजत्त पजत्त नरगन्भया, वंतपित्ताइ असनिअ| पजत्तयामिलियसब्वेवि तेतिसय तिउत्तरा मणुयजम्मंमि इय हंति विविहप्पयरा ॥६॥
, अर्थः-तेमा पर्याप्त अने अपर्याप्त एवा वे भेद गर्भन मनुष्यना छे तेथी २०२ भेद थया तथा मनुष्यना वमन पिचादिकमा उत्पन्न ययेग १०१ भेद अपर्याप्त समूर्छिम मनुष्यना धाय के सर्व मळी ते ३०३ मनुष्यना भेद थायळे..६। 51

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