Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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है मेहेण व दिणनाहो छाइजसिं तेअवंतो वि ॥१५॥ है अर्थ:-जेम तेजवान सूर्य पण मेघवडे आच्छादित थाय छे, तेम हे जीव, तुं लोकालोक मकाशक एवो ज्ञान भकाशे करी है।
तेजवान छे, छता पोतानी मेळेज उत्पन्न करेळा-निर्मेला शरीर, धन, स्त्री कुटुंबना स्नेहथी आच्छादित थाय छे.
जं वाहिवालवेसानराण तुह वेरिआण साहीणे; | देहे तत्थ ममत्तं जिअ! कुणमाणो वि किं लहसि?॥१६॥
अर्थः-आ देह, व्याधि. व्याल-सादि अने अग्नि वगेरे तारा (बाह्यांतरंग ) शत्रुभोने स्वाधीन छे. ते देह है। से उपर ममत्व करवायी तने \ फायदो थाय छे ? ॥१६॥
वरभत्तपाणण्हाण य सिंगारविलेवणेहिँ पुट्ठो वि; निअपहुणो विहडंतो सुणएण वि न सरिसो देहो॥१७॥ | अर्थः--उत्तम भोजन, पान, स्नान, शृंगार, लेपनादियी पोषण:( पुष्टि ) कर्या छता, पोताना मालिकने छोडी ज- 21
कठाइ कडुअ.बहुहा जं धणमावजिअंतए जीव! है कटाइ तुज्झ दाउं तं अंते गहिअमन्नेहिं ॥१८॥
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नार श्वानना सरखो पण गुण तेमां नथी. ॥ १७ ॥
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