Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 80
________________ आ. ३६ निअविन्नाणे निरया, निरयाइ दुहं लहंति न कयावि; जो होइ मग्गलग्गो कहं सो निवडेइ कूवंम्मि ॥ ५ ॥ अर्थः- आत्मविज्ञानमां निरंतर रक्त एवो जीव नरक, तिर्यच, मनुष्य अने देवतानां दुःखो कदापि पण पात नथी. कारण जे आत्मविज्ञानरुपी - स्वसंवेदनरूपी सीधी सडकपर जाय छे, ते जीव ( नरकादि जेमां छे, एवा संसाररूपी) कुवामां केम पडे ? ॥ ६ ॥ तेसिं दूरे सिद्धी रिद्धी रणरणयकारणं तेसिं; तेसिमपूण्णा आसा जेसिं अप्पा न विन्नाओ ॥ ६ ॥ अर्थ:- जेणे आत्मा जाण्यो नथी, तेनी आशा अपूर्ण रहे छे, तेने कीधे सिद्धि तेनाथी दूर रहे छे अने लक्ष्मी तेने दुःखनुं कारण थाय छे. ॥ ६ ॥ तादुत्तरो (र) भवजलही ता दुज्जेओ महालओ मोहो; ता अइविसमो लोहो जा जाओ न (नो) निओ बोहो ॥७॥ अर्थ:- भवसमुद्र दुस्तर त्यां सुधीज छे के ज्यां सुधी महा विस्तारवाळो मोह दुर्जय छे, अने लोभ पण त्यां सुधी विषम छे के ज्यां सुधी आत्मबोध नथी थयो. ॥ ७ ॥ जेण सुर अ ( रा ) सुरनाहा हहा अणाहुन वाहिया सोवि; ३६

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