Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

View full book text
Previous | Next

Page 65
________________ S सठ शलाका पुरुषपणुं अने नव नारदपणुं ॥१॥ HRSHANGANA अथ अभव्य कुलकम्. जह अभविय जीवहिं, न फासिया एवमाइया भावा; इंदत्तमणुत्तरसुर, सिलायनर नारयत्तं च ॥१॥ ___अर्थः-अभव्य जीवोए आ हवे पछी कहेवामा आवशे ते भावो स्पर्शा नथी. ते इंद्रपणुं, मनुचरवासी देवपणु, | केवलिगणहरहथ्थे, पवजा तिथ्थवच्छरं दाणं; पवयणसुरी सूरतं, लोगंतिय देवसामित्तं ॥२॥ ___अर्थः-चली केवली तथा गणधरना हाथे दीक्षा, तीर्थकग्नुं वार्षिक दान, प्रवचननी भधियापक देसी तथा देव8 पणु, लोकांतिक देवपणुं अने देवपतिपणुं न पामे ॥२॥ तायत्तीससुरत्तं, परमाहम्मिय जुयलमणुअत्तं; संभिन्नसोय तह. पुबधराहारयपुलायत्तं ॥३॥ अर्थः-प्रायत्रिंशकदेवपणु, पंदर जातिना परमाधामीपणुं, युगलिया मनुष्यपणुं, वली संभिन्न श्रोत अग्नि, पूर्वपर , पाझरकलन्धि, भने पुढाकळधिपणं पण न पामे ॥ ३॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112