Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 63
________________ | विरयाविरयसहोअर, उदगस्स भरेण भरिअसरिआए; भणीयाअ सावियाए, दिन्नो मग्गुत्ति भाववसा ॥ १६ ॥ ___अर्थः-विरत साधु अने अविरत श्रावक ( गना) जे बने सगा भाई हता तेमने उद्देशीने ा साधु सदाय उपवासी होय भने आ श्रावक मदाय ब्रह्मचारी होय तो अपने हे नदीदेवी ! मार्ग आपजे. एम उक्त मुनिने वंदना करवा मता भने पाछा बळता मार्गमा पाणीना पूरथी भरेली नदीने संबोधी ते श्राविका ( राणीओ) ए पो उते तेमना साचा भावषी नदीए मने तरतज पेठे पार जवा देवा माटे मार्ग करी आप्पो हतो. ॥ १६ ॥ सिरिचंडरुद्दगुरुणा, ताडितो वि दंडघाएण; तक्कालं तस्सीसो, सुहलेसो केवली जाओ॥१७॥ अर्थः श्री चंडरुद्र गुरुवडे दंडपहारथी ताडन करातो एवो तेनो (शान्त) शिष्य शुभ लेश्यावंत छतो तत्काल केवळज्ञान पाम्यो. | जं न हु भणिओ बंधो, जीवस्स वहं वि समिइगुत्ताणं; | भावो तथ्थ पमाणं, न पमाणं कायवावारो॥१८॥ अर्थः-सपिति गुमीवंत साधुभोने कवचित् जीवनो वध थइ जाय छे तो पण जे तेमने निश्चे बंध को नयी तेथी। सेमा भावज प्रमाण छे पण कायव्यापार ममाण नथी. ॥ १८ ॥

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