Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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अर्थः--ऋषभदेव स्वामीनी पुत्री सुंदरीए ६० हजार वर्ष पर्यंत कायम आंग्लि तप कर्यो ते सांभळी कहो ! कोर्नु हृदय कंप्या वगर रहेशे ? ॥ १५ ॥ | जं विहिअमंबिलतवं, बारसवरिसाइं सिवकुमारेण; तं दछु जंबुरुवं, विम्हइओ सेणिओ राया ॥१६॥
अर्थः- (पूर्व भवमा ) शिवकुमारे चार वर्ष पर्यंत आंबिल तप को हतो तेना प्रभावथी जंबुकुमारन अद्भुतरु' देखीने श्रेणिक गजा विस्मय पाम्यो हतो. ॥ १६ ॥ जिणकप्पिअ परिहारिअ, पडिमापडिवन लंदयाईणं; सोऊण तवसरुवं, को अन्नो वहउ तवगवं ॥१७॥
अथ:-निकल्पी, परिहार विशुद्धि, प्रविमामतिपन्न अने यथालंदी तपस्वी साधुओनां तपतुं स्वरुप. सौमळीने बीनो कोण तपनो गर्व करचो पसंद करशे ? ॥ १७ ॥ मासद्ध मासखवओ, बलभद्दो रुपवं पि हु विरत्तो; सो जयउ रन्नवासी, पडिबोहिअ सावयसहस्सो॥ १८॥
, अर्थ:-अति रुपवंत छता विरक्त थइ अरण्यमा वसी जेणे हजारो श्वापद जानवरोने प्रतिबोरा छे ते मास अर्थ मासनी तपस्या करता बलिभद्रमुनि जयवंता वर्तो ॥ १८ ॥

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