Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 59
________________ ***** ************* अर्थ:-कमठासुरे रचे ग भारे भयंकर पलपकाळना जेवा जन उपद्रव काळे समभाग्ने धारण करवावडे जे केवळ ज्ञान वक्ष्मीने वर्या ते श्री पार्थपभु जयवंता वों! ॥१॥ निचुन्नो तंबोलो, पासेण विणा न होइ जह रंगो तह दाणसीलतवभावणाओ, अहलाओसव भावविणा॥२॥ __अर्थः-जेम ( काया) चूना वगर तायूल (नागरवेली पान) अने पास वार बस्न ठीक रंगातुं नयी तेम भाव 81 वगर दान शील तप अने भावना भो पण फळदायी महि था-- प्रफळ धाय छे. ॥ २ ॥ मणिमंत ओसहीणं, जंततंताण देवयाणं पि; भावेण विणा सिद्धि, न हु दीसइ कस्स वि लोए॥३॥ ___ अर्थ:-मणि, मंत्र, औषधी तेमज जंत्र तंत्र अ देवतानी पण साधना दुनीयामा कोइने भाव पगर सफळ थती नथी. भाव योगेन ते ते वस्तु भोनी पिद्धि यती देवाय छे ॥३॥ सुहभावणावसेणं, पसन्नचंदो मुहुत्तमित्तेण;" खविऊण कम्मगंठिं, संपत्तो केवलं नाणं ॥४॥ अर्थः-शुभ भावना योगे पसमचंद्र (राजर्षि) वे घडी मात्रमा रागद्वेशपय कर्म गे गुंफील ग्रंथी गांउने भेदी नांखी केवळज्ञान पाम्या. | सुस्सूसंती पाए, गुरुणीणं गरहिऊण नियदोसे; *

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