Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 54
________________ त. सोहइ सणंकुमारो, तवबलखेलाइलद्धिसंपन्नो; निहुअ खवडियंगुलिं, सुवन्नसोहं पयासंतो॥५॥ अर्थः-शंकवडे खरडे ली प्रांगळीने सुवर्ण जेवी शोभती करी देखाडता एवा सनत्कुमार राजर्षि तपोवळथी | खेलादिक लब्धि संपन्न छना शोभे छे. ॥५॥ गो बंभ गभ्भ गम्भिणी, बंभिणीघायाइ गुरुअपावाई; । काऊण विकणयं पि व, तवेण सुद्धो दृढप्पहारी॥६॥ अर्थः-गो, ब्रह्मा गर्भ अने गर्भवती ब्राह्मणीनी हत्यादिक महा उग्र पापने कर्या छतां दृढमहारी (ठेवटे) मुनिषणे तप सेवनवडे सुवर्णनी पेरे शुद्ध थया. ॥ ६॥ पुव्वभवे तिव्व तवो, तविओ जं नंदिसेण महरिसिणा; वसुदेवो तेण पिओ, जाओ खयरी सहस्साणं ॥७॥ ॐ अर्थः- पूर्व जन्ममां नंदिपेण महर्षिए जे तीव्र तप को हतो तेना प्रभावथी वसुदेव हजारो गमे विद्याधरीभोना मिय--पति थया. ७४ देवावि किंकरतं, कुणंति कुलजाइविरहिआणंपि; तवमंतपभावेणं, हरिकेसबलस्स व रिसिस्स ॥ ८॥

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