Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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__अर्थ:-मघळ ध्यानरुप नया अभिवडे पाली नांखेला कर्मइन्धनोनी धूमपंक्ति जेवो जटाकलाप जेमना खभा छपर शोभी होते युगादिस जयवंता वर्तो ! ॥१॥ संवच्छरिअ तवेणं, काउस्सग्गंमि जो ठिओ भयवं; पूरिअ नियय पइन्नो, हरउ दुरिआई बाहुबली ॥२॥
- अर्थः-एक वर्ष पर्यंत तपवडे काउसग्ग मुद्राए खडा रही जे महात्माए स्वप्रतिज्ञा पूर्ण करी छे ते बाहुबली महा 18 गज (बमारा ) दुरित- पाप दूर करो ! ॥२॥
अथिरं पि थिरं वकंपि उजुअं दुलहपि तह सुलहं; | दुस्सझंपि सुसझं, तवेण संपज्जए कजं ॥३॥
अर्थः-तपना प्रभावयी अस्थिर होय ते पण स्थिर याय छे, वाकुं होय ते पण सरळ थाय , दुर्लभ होय ते पण मुखम थाय छे भने दुःसाध्य होय ते पण मुसाध्य थाय छे. ॥३॥ छठं छठेण तवं, कुणमाणो पढमगणहरो भयवं; अख्खीणमहाणसीओ, सिरिगोयमसामिओ जयउ॥४॥ ___ :-उच्च छह तप आंतरारहित करता प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी महाराज प्रक्षीण मानसी नामनी पहा
धिने माया अवता यतों! ॥४॥

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