Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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सतीभो सुखशांति आपो ! ॥ १५ ॥ | अच्चंकारिअ दळूण, (सुणिऊण)को न धुणइ किर सीसं; जा अखंडिअ सीला; भिल्लवई कयथिआ वि ॥१६॥
अर्थ:-अचंकारीमटानं ( अदभुत) चरित्र सांभळीने स्वशीर्ष (मस्तक) कोण न धुणावे? के जेणीप भिलए अत्यंत कदर्थना कर्या छतां अडगपणे स्वशीलने अखंड साचवी राख्यु.॥ १६ ॥
ते लोकोने पिय थइ शकशे नहि. ॥ १७ ।।
नियमित्तं नियभाया,निय जणओनिय पियामहो वा वि।। नियपुत्तो वि कुसीलो, न वल्लहो होइ लोआणं ॥ १७॥
अर्थः-गमे तो निज भित्र, निज बंधु, निज तात, निज तातनो तात के निज पुत्र होय पण जो कुशील हशे तो | सव्वेसि पि वयाणं, भग्गाणं अथ्थि कोइ पडिआरो; पकघडस्स व कन्ना, ना होइ सीलं पुणो भग्गं ॥ १८॥
_ अर्थः-बीना बघा व्रत भग्न थयां होय तो तेनो उपाय कड़ने कई आलोचना--निदा मायश्चितादिक रुप होइ शके | वेआलभअरख्खस-केसरिचित्तयगइंदसप्पाणं;
पण पाका घडाने वांना सांधवानी परे भागेना शीलने सांधवू दुर्घट--दुःशक्य छे. ।। १८ ॥

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