Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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क
ग. किं बहुणा भणिएणं, किं वा तविएण किं व दाणेणं;
इक्कं गुणाणुरायं, सिख्खह सुख्खाण कुलभवणं ॥४॥
अर्थः-बहु भणवाथी अथवा बहु तप करवाथी अथवा बहु दान देवाथी भुं थनार छे, एकला गुणानुरागने शीखो के जे सुखोनुं ( खास ) उत्पत्तिस्थान छे ॥ ४ ॥
जइवि चरसि तव विउलं, पढसि सुयं करिसि विविहकठ्ठाइं; न धरसि गुणाणुरायं, परेसु ता निप्फलं सयलं ॥५॥ ..... अर्थ:-जो के तुं भारे तप करे छे, शास्त्र भणे छे अने अनेक कष्ट करे छे, पण बीजाना गुणो तरफ अनुराग । नथी धरतो तो ए वधुं निष्फळ छे ॥ ५॥ सोऊण गुणुक्करिसं, अन्नस्स करेसि मच्छरं जइवि: ता नूणं संसारे, पराहवं सहसि सव्वत्थ ॥ ६॥
अर्थः-बीजाना गुणोनी प्रशंसा सांभळीने जो तुं मत्सर करे छे, तो तुं नक्कीपणे आ संसारमा सघळा स्थळे पराभव पामीश ॥ ६॥ | गुणवंताण नराणं, ईसाभरतिमिरपूरिओ भणसि;

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