Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 34
________________ 8 मा तेमज मना खेळ प्रमुख मलनी कुंडीने परउवया विगेरे काम पण हुं यथाशक्ति करी भाई. ॥ ३६ ॥ वसही पवेसि निग्गमि, निसीहि आवस्सियाण विस्सरणे; * १३५ पायाऽपमजणे विय, तथ्थेव कहेमि नवकारं॥३७॥ अर्थ:-वसति ( उपाश्रय-स्थान) मा प्रवेश करतां निस्सीही अने तेमाथी निकळत आवस्सही कहेवी भूली जाउं तेमज गाममा पेसता के निसरतां पग पुंजवा विसरी जाउं तो (याद आये तेज स्थळे ) नवकार मंत्रगणु.॥२७॥ भयवं पसाउ करिउं, इच्छाइ अभासणंमि वुड्ढेसु; | इच्छाकाराऽकरणे, लहुसु साहूसु कज्जेसु ॥ ३८॥ सव्वथ्थवि खलिएसुं, मिच्छाकारस्स अकरणे तह य; सयमनाउ विसरिए, कहियव्वो पंच नवकारो॥३९॥ अर्थ:-कार्य प्रसंगे वृद्ध साधुओने हे भगवान् ! पसाय करी भने मधु साधुने 'इच्छकार ' एटछे तेमनी इच्छा अनुसारे ज करवान कहे भूजी जाउं, तेमज सर्वत्र ज्यारे ज्यारे भूल पडे त्यारे त्यारे 'मिच्छाकार' एटछे पियामि दुख एप कहे जोइए ते विसरी जाउं तो ज्यारे मने पोताने सांभरी आवे अथवा कोइ हितस्वी संभारी मापे त्यारे तत्काळ मारे नवकार मंत्र गणवो. ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ धुवस्स विणा पुच्छं, विसेसवथ्थु न देमि गिन्हे वा;

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