Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 37
________________ सफळ थाप एटले ते शीव मुख फळने आपे छे. ॥ ४७ ॥ । ए ए सव्वे नियमा, जे सम्मं पालयंति वेरग्गा; ६ तेसिं दिख्खागहिआ, सफला सिवसुहफलं देइ ॥४७॥ . अर्थ:--आसर्वे नियमोने जे ( शुभाशयो ) वैराग्यथी सम्यग रीते पाळे छे, आराधे छे तमनी ग्रहण करेली दीक्षा इति श्री संविज्ञ साधु योग्य नीयम कुलक भाषांतर समाप्तं. अथ पुण्य कुलकम. संपुन्नइंदियत्तं, माणुसत्तं च आयरियखित्तं; जाइकुलजिणधम्मो, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥१॥ अर्थः-संपूर्ण इंद्रियपणु-कंइ पण खोड खोपण वगरनी सघळी (पांचे) इन्द्रियोनी प्राप्ति, मनुष्य पणुं, आर्यक्षेत्रपा अवतार, उत्तम जाति, उत्तम कुळ अने बीतराग भाषित जन धर्म-ए सघळांवानां मभुत (पुष्कळ) पुन्यथी प्राप्त थइ शके छे. जिणचलणकमलसेवा, सुगुरुपायपज्जुवासणं चेव; 'सज्झायवायवडत्तं, लम्भंति पभूय पुण्णेहिं ॥ २॥ “सम्भाववा यवतं" एवोज पाठ होय तो सद्भुत यथातथ्य वादो अपराजितपणु एवो अर्थ संभवे छे.

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