Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 36
________________ अर्थः--जेना हृदयमा उक्त नियमो ग्रहण करवानो लगारे भाव न होय तेमने आ नियम संबंधी उपदेश करवो ए (सिरा)--सर वगरना स्थळे कुवो खोदवा जेवो निरर्थक-निष्फळ थाय छे. ॥ ४३ ॥ संघयणकालबलदूसमा,-रयालंबणाई घित्तुणं; सव्वं चिअ निअम धुरं, निरुज्जमाओ पमुच्चंति ॥ ४४ ॥ _ अर्थः नवळा संघयण, काळ, बळ, अने दुषम आरो ए आदि हीणां आलंबन पकडीने पुरुषार्थ वगरना पामर ॐ जीवो आळस ममादयी बधी नियम धुराने छंडी दे छे. ॥ ४४ ॥ वृच्छिन्नो जिणकप्पो, पडिमाकप्पो अ संपइ नथ्थि; | सुद्धो अथेर कप्पो, संघयणाईणि हाणीए॥४५॥ अर्थः-( संपति काळे ) जिनकल्प व्युच्छिन्न थयेलो छे. घळी प्रतिमाकल्प पण अत्यारे वर्ततो नथी तथा संघयणादिकनी हानीथी शुद्ध स्थवीरकल्प पण पाळी शकातो नथी. ॥ ४५ ॥ : तहवि जइए अनियमा-राहणविहिए जएज चरणंमि; सम्ममुवउत्तचितो, तो नियमाराहगो होइ ॥ ४६॥ __ अर्थ:--तो पण जो मुमुक्षुभो आ नियमोना आराधन विधिवडे सम्पग उपयुक्त चित्त या चारित्र सेवनमा उत्र15 माळ बनशे तो ते नियमा--नोश्चे आराधक भावने पापेशे ॥ ४६ ।।

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