Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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विकमनरिंदचरिअं, अज्जवि लोए परिप्फुरइ ॥१५॥ ..... वर्षः-प्रसिदान बन्यायी वाचाळ थयेला कवियो( पंडितो)ए सेंकड़ो काल्योवडे विस्तारेलं श्री विक्रमादित्यः | गमा चरित्र अद्यापि पर्यंत कोकया मसिध्ध थइ गयुं छे. ॥ १५ ॥ तियलोयबंधवेहि, तम्भवचरिमेहिं जिणवरिंदेहि; कयकिच्चेहिं वि दिन्नं, संवच्छरियं महादाणं ॥१६॥
अर्थ:-जीयोकी बंधु एया भिमेश्वरो तेज भवमा मोक्ष जवाना निश्चित अने कृतकृत्य छतां पण तेमणे सांवत्सरिक है| | (एक वर्ष पर्वत ) महादान आप्पु. ॥ १६ ॥
सिरि सेयंसकुमारो, निस्सेयससामिओ कह न होइ; | फासुअदाणपवाहो, पयासिओ जेण भरहंमि ॥१७॥ अर्थः-अणे मामुक (निर्दोष) दाननो प्रवाह आ भरतक्षेत्रमा चलाव्यो एवो श्रीश्रेयांसनुमार मोक्षनो अधिकारी केम न थाय? कह सा न पसंसिजइ, चंदणबाला जिणंददाणेणं; छम्मासिअतव तविओ, निव्वविओ जिए वीरजिणो॥१८॥
अर्थः- मासी रुप मजे करेलो के एका वीरप्रभुने जेणीए अडदना शकुना परिलाभवावडे संतोप्या ते चंदन
बाळानी केम प्रशंसा न करीए ? ॥१८॥

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