Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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अवियारं तारुनं, जिणाणं राओ परोवयारत्तं; निकंपया य झाणे, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥६॥ र अर्थः निर्विकार--विकार वगरनुं यौवन, जिन शासन उपर चोळममीठ जेबो गग, परोपकारीगj भने ध्यानयां 8) निश्चकता एपर्धा पानां महापुन्य योगे प्राप्त यइ शके छे. ॥६॥
परनिंदापरिहारो, अप्पसंसा अत्तणो गुणाणं च; ६ संवेगो निव्वेओ, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥७॥
अर्थ:--परनिंदानो त्याग अने आपणा गुणोनी श्लाघा--प्रसंसायी दूर रहे, तेमज संवेग--मोक्षामिछाप भने/Re-fa 12 भव वैराग्य ए वर्धा बाना मभूत पुन्य योगे माप्त थाय . ॥७॥ | निम्मलसीलाम्भासो, दाणुल्लासो विवेमसंवासो;
चउगइदुहसंतासो, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥८॥ __अर्थ--निर्मळ-शुद्ध शीलनो अभ्यास, सुपात्रादिक दान देता उल्लास, हिताडित संबंधी विवेक सहितपणुं भने चार गतिना दुःखथकी संपूर्ण त्रास एषां वानां महा पुन्यना योमे प्राप्त थाय छे. ॥ ८ ॥ दुक्कडगरिहा सुकडा-णुमोयणं पायच्छित्त तवचरणं;
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