Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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अर्थ:-जिन--अरिहंतना चरणकमळनी सेवा-भक्ति, अने सद्गुरुना चरणनी पर्युपासना, सपाय ध्यान तथा धर्मवादमा वदापणु-पराभव नहि पामवापणुं ए सघळा वानां प्रभूत पुन्य योगे प्राप्त थइ शके छे. ॥२॥ १५४ सुद्धो बोहो सुगुरुहिं, संगमो उवसमं दयालुत्तं;
दाखिन्नं करणंज, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥३॥ ____अर्थः--शुद्धबोधिबीज रुप समकितरत्ननुं पाम, मुगुरुनो समागम, उपशम भाव--शमता, दयाळूपणु, भने दाक्षिण्यता गुणतुं पालन ए बी वानां प्रभुत पुन्ययोगे प्राप्त थाय छे. ॥३॥ संमत्तं निचलंतं, वयाण परिपालणं अमायत्तं; पढणं गुणणंविणओ, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥ ४ ॥ . अर्थः-सम्यक्त्व (समकित ) म निश्चळता, व्रतोतुं (अथवा बोलेला वचनोनू) परिपालन, निर्मायीपणु, भगवू, गण, भने विनय ए चर्चा वानां महापुन्य योगे माप्त थइ शके छे. ॥ ४ ॥ उस्सग्गे अववाये, निच्छहविवहारंमि निऊणत्तं; मणवयणकायसुद्धी, लम्भंति पभूयपुण्णेहिं ॥५॥ अर्थः--उत्सर्ग-विधिमार्ग अने अपवाद--निषेधमार्ग तेमा तथा निश्चय--साध्यमार्ग भने व्यवहार--साधनमार्ग तेमा निपुण पणुं, तेमज मन बचन कायानी शुद्धि पवित्रता-निर्दोषता-निष्कलंकता एषा वाना मभूत पुन्यनायोगे माणीने माप्त थानके
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