Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 42
________________ नी. १७ तक्कारणमुसभजिणो, तेलुक्कपियामहो जाओ ॥ ५॥ अर्थ:- धनसार्थवाहना भवमां सुसाधुजनोगे जे घीनुं दान दीधुं हतुं ते पुण्यना मभावथी ऋषभदेव भगवान् भन कोकना पितामह (नाथ) थया. ॥ ५ ॥ करुणाई दिन्नदाणो, जम्मंतरगहिअपुन्नकिरिआणो; तिथ्थयरचक्करिद्धिं, संपत्तो संतिनाहो वि ॥ ६॥ अर्थ:- पाइला भव करुणाकडे पारेवाने अभयदान आप्युं भने पुण्य करीयानुं खरीदो कीधुं तेषी शांतिनाथजी साकर भने चक्रवर्तीभी ऋद्धि पाया ॥ ६ ॥ पंचसय साहु भोयण, दाणावज्जिअ सुपुन्नपप्भारो; अच्छारिअ चरिअ भरिओ, भरहो भरहाहिवो जाओ ॥७॥ अर्थ:- पांचसो साधुओ ने भोजन दान भागवावडे जेने बहु भारे पुण्य वेदा कर्तुं के एवी भने आश्चर्यकारक चरित्रधी भरेको एवो भरत भरतक्षेत्रनो नायक - चक्रवर्ती थयो. ॥ ७ ॥ मूलं विणावि दाउँ, गिलाण पडिअरण जोग वथ्थूणि; सिद्धो अ रयणकंबल - चंदण वणिओ वि तंमि भवे ॥ ८ ॥ १७

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