Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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* एगं परिठवेमि अ, मत्तयं सव्वसाहूणं ॥३३॥
__अर्थः--आखा दिवसमा संयम मार्गमा (धर्मकार्यमा) प्रमाद करनाराओने हुं पांच वार हितशिक्षा (शिखामण) आ अने सर्व साधुबोने एक मात्रक (परठववानुं भाजन.) परठवी आपुं. ॥ ३३ ॥ चउवीस वीस वा, लोगस्स करेमि काउस्सग्गंमि; कम्मखयठा पइदिण, सज्झायं वा वि तम्मित्तं ॥ ३४ ॥ ____ अर्थः-प्रतिदिवस कर्मक्षय अर्थे चोवीस के वीस लोगस्सनो काउस'ग करूं, अथवा एटला प्रमाणमा सज्झाय ध्यान काउसम्ममा रही स्थिरताथी कई. ॥ ३४ ॥ | निदाइपमाएणं, मंडलिभंगे करेमि अंबिलय, | नियमा करेमि एग; विस्सामणयं च साहणं ॥ ३५॥
... अर्थः--निद्रादिक प्रमादवडे मंडलीनो भंग थइ जाय (मंडलीमा बराबर वखते हाजर न थइ शकुं) तो एक ऑविक | कलं. अने सहु साधु जनोनी एक वखत विश्रामणा-वैयावच्च निश्चे करु. ॥ ३५ ॥ | सेहगिलाणाइणं, विणावि संघाडयाईसंबंध, | पडिलेहणमल्लगपरि--ठवणाई कुव्वे जहासत्ति ॥३६॥
अर्थः-संघाडादिकनो कशी संबंध न होय तो पण लघु शिष्य ( बाळ ) अने ग्लान साधु प्रमुख पडिलेहण करी

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