Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 31
________________ ___अर्थः-अथवा सूर्य निश्चे देखाते छतेज उचित अवसरे सदाय जळपान करी ले-सूर्यास्त पहेलोन सर्व आहार संबंधी पञ्चख्खाण करी लउं. अने अणाहारी औषधनो संनिधि पण उपाश्रयमा राखं-रखावु नहि. ॥ २६ ॥ तवआयारे गिन्हे, अह नियमे कइवि सत्तीए; ओगाहियं न कप्पइ, छठाइतवं विणा उ जोगं च ॥२७॥ अर्थः-हवे तप आचार विषे वेटलाक नियमो शक्ति अनुमारे ग्रहण करुं छु. छठ (साये उपवास) आदिक प को होय तेमज योग वहन करतो होउं ते वगर मने अवग्राहित भिक्षा लेवी कल्पे नहि. ॥ २७ ॥ | निम्वियतिगं च अंबिल,-दुगं चविणु नो करेमि विगयमह; है। | विगइ दिणे खंडाई, णकार नियमो अजाजीवं ॥२८॥ अर्थः-लागलागां त्रण नीवीभो अथवा चे आंबिल कर्या वगर हुं विगइ (द्ध दहीं घी प्रमुख) वापरुं नहिं अने | ल विगइ वापरुं तो दिवसे खांड प्रमुख विशिष्ठ (साथे मेळवीने नहि वापरवानो) नियम जावजीव सुधी पाळ. ॥ २८॥ निव्वियाइं न गिन्हे, निव्वियतिगमज्झि विगइ दिवसे अB | | विगई नो गिन्हेमि य, दुन्नि दिणे कारणं मुत्तुं ॥२९॥ अर्थः-त्रण नीवी लागोलाग थाय ते दरमीयान तेमन विगइ वापरवाना दिवसे निवियाता ग्रहण करुं नहिवापरु नहि. तेमन बे दिवस मुधी लागट कोइ तेवा पुष्ट कारण वगर विगइ वापरुं नहि. ॥ २९ ॥

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