Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
View full book text
________________
रागमये मणवयणे, इकिकं निव्वियं करेमि अहं; कायकुचिठाए पुणो, उववासं अंबिलं वा वि ॥२०॥
अर्थः-मन-वचन-काय गुप्ति - मन अने वचन रागमय-रागाकुळ थाय तो हुँ एक एक निवि करूं. अने जो कायकुचेष्टा थाय-उन्माद जागे तो उपवास अथवा आयंबिल करूं. ॥ २० ॥ बेंदियमाईण वहे, इंदिअसंखा करेमि निवियया; भयकोहाइवसेणं, अलीयवयणंमि अंबिलयं ॥२१॥
____ अर्थ:-अहिंसात्रते-चे इंद्रिय प्रमुख जीवनी विराधना (प्राण हानि) मारा प्रमादाचरणथी थइ जाय तो तेनी | इंद्रियो जेटली निविभो करूं. सत्यव्रते-भय, क्रोध लोभ अने हास्यादिकने वश थइ जइ जुठं बोली जाउं तो आंबिळ करूं. पढमालियाइ न गिन्हे, घयाइ वत्थूण गुरुअदिवाणं; दंडगतप्पणगाइ, अदिन्नगहणे य अंबिलयं ॥ २२॥ _____ अर्थः-अस्तेय व्रते-पढमालिया (प्रथम भिक्षा) मा आवेला जे घृनादिक पदार्थ गुरु महाराजने देखाड्या नगरना होय ते हुं लेउं नहिं (वापरु नहि) अने दांडो, तर्पगी वगेरे बीजानी रजा कार लेउं वापरुं तो आंबिल करूं. ॥ २२ ॥ एगथ्थीहिं वत्तिं, न करे परिवाडिदाण मवि तासिं;
CHURCHANAGORKHORRORONG

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112