Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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हैं। इगवरिसारिहमुवहि, ठावे अहिगं न ठावेमि ॥२३॥
अर्थ:-ब्रह्मव्रते-एकली स्त्री संगाये वार्तालापन करुं अने स्त्रीओने (स्वतंत्र) भणावू नहि. परिग्रहपरिहारवते
वर्ष योग्य (चाले तेटलोज) उपधि राखं, पण एथी अधिक नज ग. ॥ २३ ॥ ६ पत्तग टुप्परगाइ, पनरस उवरिंन चेव ठावेमि; आहाराण चउन्हें, रोगे वि अ संनिहं न करे॥२४॥ .
अर्थः-पात्रां अने काचला प्रमुख पंदर उपरान नज ग. रात्रिभोजनविरमणव्रते-अशन, पान, खादिम अने ॐ स्वादिम रुप चार प्रकारना आहारनो (लेश मात्र) संनिधि, रोगादिक कारणे पण राखं-करु नहि. ॥ २४ ॥
महरोगे वि अ काढं, न करेमि निसाइ पाणीयं न पिबे; सायं दोघडियाणं, मज्झे नीरंपि न पिबेमि ॥२५॥
अर्थ-महान् रोग थयो तोय तोपण क्वाथ न करूं-उकालो पोउ नहीं, तेमज रात्री समये जळपान करुं नहि. अने छ Rसांजे छेल्ली बे घडीमा (सूर्यास्त पहेलांनी घे घडीना काळमा) जळपान पण करुं नहिं, तो पछी बीजा अशनादिक आहार करवानी तो वातज शी? ॥२५॥ अहवा निच्छिअ सूरे, काले नीरं करेमि सयाकालं; अणहारोसहसंनिहि,-मवि नो ठावेमि वसहीए ॥ २६॥ ६११

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