Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 32
________________ كي १२ अमीचउदसी, करे अहं निव्वियाई तिन्नेव; अंबिलदुगं च कुव्वे, उववासं वा जहासत्तिं ॥ ३० ॥ अर्थः- प्रत्येक अष्टमी अने चतुर्दशीने दिवसे शक्ति होय तो उपवास करूं, नहि तो ते बदल वे आंबिल अथवा निविय पण करी आपुं ॥ ३० ॥ दव्वखित्ता इगया, दिणे दिने अभिग्गहे अव्वा; जीयंमि जओ भणिअं पच्छित्तमभिग्गहाभावे ॥ ३१ ॥ " अर्थः - प्रतिदिन द्रव्य क्षेत्र काळ अने भावगत अभिग्रह * धारण करवा केमके अभिग्रह न धारीए तो प्रायश्चित आवे एमजीत कल्पमां भाख्युं छे. ॥ ३१ ॥ विरियायारनियमे, गिन्हे कइअवि जहासत्ति; दिण पण गाहाइणं, अध्थं गिन्हे मणेण सया ॥ ३२ ॥ अर्थ:-वीर्याचार संबंधी केटलाक नियमो यथाशक्ति हुं ग्रहण करुहुँ. सदा-सर्वदा पांच गाथादिकना अर्थ हुं ग्रहण करी मनन करूँ. पण वारं दिण मज्झे, पमाययंताण देमि हियसिख्खं; * अमुक वस्तु अमुक स्थळे अमुक वखते भने अमुक रीते मळे तेज भिक्षा वखते लेवी एवा प्रकारनी विशिष्ट प्रतिज्ञा धारवी से. 3 १२

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