Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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लद्धेपि मणुअजम्मे, अइदुल्लहा सुगुरुसामग्गी॥९॥
अर्थः-जीवोने सर्वज्ञभाषित धर्म पामवो दुर्लभ छे तथा मनुष्य जन्म मळयो दुर्लभ छे. अने ते मनुष्य जन्म मळे छते पण सद्गुरु सामग्री मळवी अति दुर्लभ छे. ॥९॥ | जत्थ न दिसंति गुरु, पञ्चुसे उठिएहिं सुपसन्ना;
तत्थ कहं जाणिजइ, जिणवयणं अमिअसारिच्छं॥१०॥ 18| अर्थ:-ज्या प्रभाते उठतांज सुप्रसन्न गुरुना दर्शन यता नथी, त्या अमृन सदृश जिनवचननो लाभ शी रीते लइ शकाय?१०
जह पाउसंमि मोरा, दिणयरउदयम्मि कमलवणसंडा; . विहसंति तेम तचिय(?), तह अम्हे दंसणे तुम्ह ॥११॥ ___ अर्थः-जेम मेघने देखी मोरो प्रवदित थाय छे अने सूर्यनो उदय थेये छते कमळनां वन विकसित थाय छे, तेम ज आपनुं दर्शन थये छते अमे पण प्रमोद पामाए छीए. ॥ ११॥ जइ सरइ सुरहि वच्छो, वसंतमासं च कोइला सरइ विंझं सरइ गइंदो, तह अम्ह मणं तुमं सरइ॥१२॥ .. अर्थः- सद्गुरुजी ! जेम गाव पोताना बाछरडाने संभाळे छ, भने जेम कोयक वसंतमासने इच्छे थे, तथा
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