Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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tat fire eat अटवीने याद करे छे; तेम अपारं मन (सदाय) आपनुं स्मरण कर्या करे छे. १२
बहुया बहुयां दिवसडा, जइ मई सुहगुरु दीठ; लोचन a विकसी रह्यां, हीअडई अमिय पइठ ॥ १३ ॥
अर्थ:-बहु बहु दहाडा जता रह्या अने हवे में सुगुरु दीठा तेथी मारी वे आंखो विकस्वर थइ अने हृदयमां अमृत पेतुं ॥१३॥
अहो ते निजिओकोहो, अहो माणो पराजिओ; अहो ते निरक्किया माया, अहो लोहो वसीकिओ ॥१४॥
अर्थ:- अहो ! इति आश्चर्ये ! आपे क्रोधनो केवो जय कर्यो छे माननो केवो पराजय कर्यो छे ? मायाने केवी दूर करी छे ? अने लोभने केवो वश कर्यो छे ? ।। १४ ।।
अहो ते अज्जवं साहु, अहो ते साहु महवं;
अहो ते उत्तमा खंती, अहो ते मुत्ति उत्तमा ॥ १५ ॥
अर्थ:- अहो आप आर्जव (सरलपणुं ) केनुं उत्तम छे ? अहो आपनुं मार्दव [ नम्रपणुं ] केतुं रुई छे ? हो आपनी क्षमा केवी उत्तम छे ? अने आपनी संतोष वृत्ति केवी श्रेष्ठ छे. ॥ १५ ॥
इहं सि उत्तमो भंते, इच्छा होहिसि उत्तमो;

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