Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
View full book text
________________
अंत थयो मान ढु.॥६॥
चिंतामणिसारिच्छं, समत्तं पावियं मए अज; | संसारो दूरीकओ, दिले तुह सुगुरु मुहकमले ॥६॥
. अर्थ:-हे सद्गुरु ! आपनें मुख कमल दीठे छते चिंतामणि रत्न सरखं समकित मने माप्त थयुं, अने तेथी संसारनो जा रिद्धि अमरगणा, भुंजता पियतमाइसंजुत्ता; सा पुण कित्तियमित्ता, दिखे तुह सुगुरु मुहकमले ॥७॥
अर्थः-हे सद्गुरु ! आपनुं मुख कमल दीठे छते जे ऋद्धि देवतायो पोतानी देवांगनादिक सहित भोगवे छे ते मारे कई हिसाबमा नथी. ॥ ७ ॥
मणवयकायेहिं मए, जं पावं अज्जियं सया भयवं]; | तं सयं अज गयं, दिठे तुह सुगुरु मुहकमले ॥८॥ | अर्थः-हे सद्गुरु ! आपनुं वदनकमल दीठे छते जे मन, वचन, कायाथी में जे पाप आज पर्यंत उपार्जन कर्यु छे; ते बधुं आजे स्वतः नष्ट थयुं मानुछु. ॥ ८ ॥ दुल्लहो जिणिंद धम्मो, दुल्लहो जीवाण माणुसो जम्मो;

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112