Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 26
________________ अर्थ:-हमेशा वडिळ साधुने निश्चे प्रण वार (त्रिकाळ) वंदन करुंज अने बीना ग्लान (व्याधिग्रल) तेमम वृद्धादिक मुनिजनोनुं वैयावच्च यथाशक्ति करूं. ॥ १०॥ . अह चारित्तायारे, निअमग्गहणं करेमि भावेणं; बहिभूगमणाईसुं, वजे वत्ताइं इरियथ्थं ॥११॥ ___अर्थः-हषे चारित्राचार विषे नीचे मुजब नियमो भाव सहीत अंगिकार करूंछु. १ इर्या समितिः-वडी नीति, लघु नीति करवा अथवा आहार पाणी वहोरवा जतां इर्यासमिति पाळवा माटे ( जीव रक्षा अर्थे ) वाटमा वार्तालाप विगेरे करवानुं हुं वर्जु-त्याग करूं. ॥ ११ ॥ अपमजियगमणमि अ, संडासा पमजिउंच उवविसणे; पाउंछणयं च वि--उवविसणे पंचनमुक्कारा ॥१२॥ अर्थ:-यथाकाळ पुंज्या प्रमाा वगर चाल्या जवाय तो, अंग पडिछेहणा प्रमुख संडासा पडिछेह्या वगर घेसी जवाय तो अने कटासणा (कांबळी ) वगर बेसी जवाय तो (तत्काळ ) पांच नमस्कार करवा (खमासमगा देवा अथवा पांच नवकार मंत्रनो जाप करवो. ॥१२॥ उग्घाडेण मुहेणं, नो भासे अहव जत्तिया वारा; १ भासे तत्तिअमित्ता, लोगस्स करेमि उस्सग्गं ॥१३॥

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