Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 18
________________ अर्थ :- आज मारो जन्म कृतार्थ भयो. आज मारुं जीवीत सफळ थयुं, के जेथी आपना दर्शन रूप अमृत रस बढे करीने मारा नेत्र सिंचित थथ, अर्थात् आपनुं अद्भुत दर्शन मने प्राप्त थयुं ॥ २ ॥ सो देसो तं नगरं तं गामो सो अ आसमो धन्नो; जथ पहु तुम्ह पाया, विहरंति सयावि सुपसन्ना ॥ ३ ॥ 'अर्थ:- ते देश, ते नगर, ते गाम अने ते आश्रम (स्थान) धन्य के के, ज्यां हे मधु ! आप सदाय सुप्रसन्न यता विचरो छो अर्थात् विहार करो छो. ॥ ३ ॥ हथ्था ते सुकयथा, जे किईकम्मं कुणंति तुह चलणे; वाणी बहुगुणखाणी, सुगुरुगुणा वन्निआ जीए ॥ ४ ॥ अर्थः- हाथ सुकृतार्थ छे के, जे आपना चरणे द्वादशावर्त वंदन करे छे, अने ते बाणी (जीव्हा) बहु गुणबाळी छे के, जे बढे सद्गुरुना गुणोनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. ॥ ४ ॥ अवयरिया सुरधेणू, संजाया महगिहे कणयवुट्टी; दारिद्द अज्ज गयं, दिट्ठे तुह सुगुरु मुहकमले ॥ ५ ॥ अर्थ :- हे सद्गुरु ! आपनुं मुखकमल दीठे छते आज कामधेनु मारा घर भांगणे आवी जाणुं छं. तेमज सुवर्ण दृष्टि यह जानुंलुं. अने आजयी पारुं दारिद्र दुर पयुं मानुं ॥ ५ ॥ +

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