Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 14
________________ जम्मंमि तम्मि न पुणो, हविज्ज रागो मणमि जस्स कया; कु. सोहोइ उत्तमुत्तम, रूवो पुरिसो महासत्तो॥१८॥ अर्थः-अने फरीने ते जन्ममा क्यारे पण तेना मनमा तेवो राग उत्पन्न न थाय ते पुरुष उत्तमोत्तम जाणवो ते पण महा बळवानज गणाय छे ॥ १८ ॥ पिच्छई जुवईरूवं, मणसा चिंतेई अहव खणमेगं; जो न यरइ अकज्जं, पत्थिज्जंतो वि इत्थीहिं ॥ १९॥ अर्थः-जे पुरुष स्त्री रुप जोइ क्षणभर मनथी तेना तरफ खेचाया छतां पण अने ते स्त्रीए तेने भोळव्या छता पण अकार्यमां नहि फसे ॥ १९॥ | साहू वा सड्ढोवा सदारसंतोससायरो हुज्जा; सो उत्तमो मणुस्सो, नायव्वो थोवसंसारो ॥२०॥ अर्थः-किंतु साधु होय तो साधु तरीके पोतानुं ब्रह्मचर्य व्रत जाळवी राखे, अने श्रावक होय तो स्वदार संतोषी रहे ते साधु अथवा श्रावक उत्तम पुरुष जाणवो. ते पुरुष पण अल्प संसारी जाणवो ॥ २० ॥ 1 पुरिसत्थेसु पवट्टइ, जो पुरिसो धम्मअत्थपमुहेसु; ३ -

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