Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए काण्डक परूवणा
संजणाणमेय द्विदिबंधो अंतोमुहुत्तूणटुवस्समेत्तो । सेसाणं कम्माणं पुम्बिलट्ठि विबंधाको संखेज्जगुणहो । तपाओग्गसंखेज्जवस्सस हस्तमेत्तो त्ति बटुव्वो ।
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* अण्णमणुभागखंडयमस्सकण्णकरणेणेव आगाइदं ।
५. चदुन्हं संजलणाणमण्णमणुभागखंडय मेदम्मि समये आगाइज्जमाणमस्तकण्णायारेवागावं । तदो खंडय सरूवेणागाइदाणुभागो च लोभे थोवो होवूण मायादिपरिवाडीए जहाकममतगुणकमेण दट्ठव्वो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसम्भावो । नाणावरणादिकम्माणमणुभागद्यादी पुण अस्सकण्णकरण विसेसेण विरहिदो पुग्वद्यादिदसे साणुभागस्स अणंते भागे घेतून पयट्टदि त्ति घेत्तव्वो, अस्सकण्गकरणणियमस्स चदुसंजलणेसु चेव पडिबद्धत्तादो ।
* अण्णं द्विदिखंडयं चदुण हं घादिकम्माणं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि ।
६६. कुदो ? तेसि संखेज्जवस्ससह स्सिय द्विविसंतकम्मादो संखेज्जगुणहाणीए पयट्टमाणस्स ट्ठिदिखंडयस्स तप्यमाणत्तविरोहादो ।
* णामामोद वेदणीयाणमसंखेज्जा भागा ।
है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । संज्वलनोंका यह स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष प्रमाण होता है। शेष कर्मोंका पूर्वके स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा होता है । अर्थात् शेष कर्मोंका तत्प्रायोग्य संख्यात हजार वर्षं प्रमाण जानना चाहिए ।
* अन्य अनुभागकाण्डक अश्वकर्णकरणके आकाररूपसे हो ग्रहण किया है।
$ ५. इस समय चार संज्वलनोंके अन्य अनुभागकाण्डकको ग्रहण करते हुए अश्वकर्णकरणके आकाररूपसे ही ग्रहण किया है, इसलिए काण्डकरूपसे ग्रहण किया गया अनुभाग लोभमें स्तोक होकर मायादिकी परिपाटीके अनुसार यथाक्रम उत्तरोत्तर अनन्तगुणित क्रमसे जानना चाहिए इस प्रकार यह यहाँ सूत्रका अर्थ है । पुनः ज्ञानावरणादि कर्मोके अनुभागका घात अश्वकर्णकरणविशेषसे रहित होकर पहले घात करनेसे जो अनुभाग शेष रहा है उसके अनन्त बहुभागको ग्रहण कर प्रवृत्त होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अश्वकर्णकरणका नियम चार संज्वलनों में ही प्रतिबद्ध है ।
विशेषार्थ - उक्त सूत्र द्वारा चार संज्वलनोंका अनुभाग ही अश्वकर्णके आकाररूपसे घात के लिए ग्रहण किया जाता है यह स्पष्ट किया गया है, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मोंका घात करने के बाद जो अनुभाग शेष रहता है उसका अश्वकर्णकरणके आकाररूपसे रचना न होकर वह प्रति समय अनन्त बहुभागरूपसे घातके लिये प्रवृत्त होता है यह इस सूत्र का तात्पर्य है ।
* चार घातिकर्मोंका संख्यात हजार वर्ष प्रमाण अन्य स्थितिकाण्डक होता है ।
६६. क्योंकि उन कर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है, इसलिए प्रत्येक स्थितिकाण्डक संख्यातगुणी हानिरूपसे प्रवृत्त होता है ऐसा स्वीकार करनेपर उस स्थितिसत्कर्मके तत्प्रमाण माननेमें विरोध आता है ।
* तथा नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका अन्य स्थितिकाण्डक असंख्यात बहुभागप्रमाण होता है।
१. आ. प्रती संजलणाण- इतः प्रभृति संखेजगुणहीणो इति यावत् सूत्ररूपेणोपलभ्यते ।