Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 32
________________ ( २९ ) कोलके अन्तिम समयमें लोभसंज्वलनका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, तीनों घातिकोका कुछ कम दिनरातप्रमाण और नाम, गोत्र तथा वेदनीयकर्मका कुछ कम एक वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। उस कृष्टिकरणकालके एक समय कम तीन आवलिप्रमाण काल शेष रहनेपर दो प्रकारके लोभका लोभसंज्वलनमें संक्रम न होकर स्वस्थानमें ही उपशम होता है, क्योंकि संक्रमणावलि और उपशमनावलिका यहाँपर परिपूर्ण होना नहीं बनता है। पुनः कृष्टिकरणकालमें आवलि और प्रत्यावलिके शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है । प्रत्यावलिमें जब एक समय शेष रहता है तब लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। उस समय कृष्टिगत लोभसंज्वलन, एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिको छोड़कर तीन प्रकारका शेष सब लोभ उपशान्त रहता है। इस प्रकार यहाँ जाकर यह जीव अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक संयत होता है। पश्चात् अगले समय में सूक्ष्मसाम्परायसंयत होकर यह जीव लोभसंज्वलनकी अन्तमुहूर्तप्रमाण प्रथम स्थिति करता है। लोभवेदकने प्रथम समयमें जो प्रथम स्थिति की थी यह उसके कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण होती है। इस प्रकार सूक्ष्मसाम्परायको प्राप्तकर यह जीव उसके प्रथम समयमें किन कृष्टियोंका किस प्रकार वेदन करता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि (१) एक तो प्रथम और अन्तिम समयकी कृष्टियोंको छोड़कर शेष समयोंमें जो अपूर्व कृष्टियाँ की जाती हैं उनमें प्राप्त धनके असंख्यातवें भागप्रमाण सदृश धनका वेदन करता है। (२) दूसरे प्रथम समयमें जो कृष्टियाँ की जाती है उनके उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष सब कृष्टियोंमेंसे सदृश धनका वेदन करता है। (३) तीसरे अन्तिम समयमें जो कृष्टियाँ की जाती हैं उनमें जो सबसे जघन्य कृष्टि है उससे लेकर असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष बहुभागप्रमाण कृष्टियोंका वेदन करता है। इससे स्पष्ट है कि प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीव प्रथम समयमें रचित कृष्टियोंके उपरिम असंख्यातवें भागको और अन्तिम समयमें रचित कृष्टियोंके अधस्तन असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष प्रथम और अन्तिम समय सहित सब समयोंमें रचित कृष्टियोंका उक्त विधिसे वेदन करता है। ___ यहाँ प्रथम और अन्तिम समयमें की गई जिन कृष्टियोंके वेदनका निषेध किया है उनके विषयमें ऐसा समझना चाहिये कि उनका अपने रूपसे वेदन नहीं होनेका ही यहाँ निषेध किया है, मध्यम कृष्टिरूपसे उनके वेदनका निषेध नहीं है। अर्थात् वे कृष्टियाँ मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमकर उदयमें आती हैं। . यह सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें कृष्टियोंके वेदनकी विधि है। कृष्टियोंको उपशमाता किस विधिसे है इसका निर्देश करते हुए बतलाया है कि उन्हें गुणश्रेणिरूपसे उपशमाता है। क्रम यह है कि सब कृष्टियोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उसको प्रथम समयमें उपशमाता है। पुनः सब कृष्टियोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतने प्रदेशपुंजको दूसरे समय में उपशमाता है, जो कि प्रथम समयमें उपशमाये गये द्रव्यसे असंख्यातगुणा होता है। इसी प्रकार तृतीयादि समयोंमें उपशमाये जानेवाले प्रदेशपुंजके विषयमें सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय तक जानना चाहिये। इसी प्रकार जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण स्पर्धकगत नवकबन्ध अनुपशान्त

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