________________ लेखक की कलम से... ग्रंथकार परिचय प्रस्तुत 'कर्मग्रंथ' के रचयिता पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसूरिजी म.सा. है / भगवान महावीर प्रभु की 44 वीं पाट-परंपरा में आचार्य श्री जगच्चन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. हुए थे / जिन्होंने 12 वर्ष तक निरंतर आयंबिल की तपश्चर्या की थी / उनके इस तप से प्रभावित होकर मेवाड के महाराणा जैत्रसिंह ने उन्हें 'तपा' का तथा अनेक वादियों पर विजय प्राप्त करने के कारण 'हीरला' का बिरुद प्रदान किया था / पू.आ. श्री जगच्चन्द्रसूरिजी म. को प्राप्त 'तपा' बिरुद के कारण निग्रंथगच्छ का नाम तपागच्छ हो गया / जो आज भी चालू है। पू. आचार्य श्री जगच्चन्द्रसूरिजी म. की धर्मवाणी का श्रवण कर उनके सांसारिक ज्येष्ठ बंधु वरदेव के पुत्र देवसिंह ने दीक्षा अंगीकार की और वे मुनि देवेन्द्र बने / मनिश्रीने स्व-पर दर्शन का गहन अध्ययन किया जिसके फल स्वरुप उन्हें आचार्य पद प्रदान किया गया और वे देवेन्द्रसूरिजी म. के नाम से प्रख्यात हुए। आचार्य पदारुढ होने के बाद उन्होंने मालवा देश में विहार विचरण कर खुब सुंदर शासन प्रभावना की थी। एक बार उज्जैन में जिनभद्र शेठ के पुत्र वीरधवल के पाणिग्रहण का महोत्सव चल रहा था / भाग्य योग्य से पू.आ.श्री देवेन्द्रसूरिजी म. भी वहां पधारे, उनके उपदेश श्रवण से वीरधवल अत्यंत ही प्रभावित हुआ और वह दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गया / लग्न मंडप दीक्षा मंडप में बदल गया / वि.सं. 1302 में वीरधवल ने भागवती दीक्षा अंगीकार की / वीरधवल मुनि ने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया / वि.सं. 1322 में उन्हें सूरि पद प्रदान किया गया / और वे विद्यानंदसूरि कहलाए / 25 कर्मग्रंथ (भाग-1)