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8 अप्रमाद-संवर का सक्रिय आधार और आचार ॐ १३ *
उससे अशुभ कर्मों का बन्ध होकर पुनः-पुनः जन्म-मरण करना पड़ता है। मन से . भी पाँचों इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष, क्लेश आदि होते हैं, जिससे हिंसादि भाव एवं आर्त-रौद्रध्यान होता है, अशुभ लेश्याओं में, कषायों में प्रवृत्त होकर जीव पापकर्म का बन्ध करता है। इस प्रकार प्रमाद के वशीभूत होकर जीव असंख्यकाल तक पुनः-पुनः दुःख पाता रहता है। . प्रश्न होता है प्रत्येक व्यक्ति के पास प्रायः पाँचों इन्द्रियाँ होती हैं, मन होता है, इन सबके विषयों में भी सबको प्रवृत्ति करनी पड़ती है। छद्मस्थ व्यक्ति के लिए पाँचों इन्द्रियों और मन के विषयों में प्रवृत्ति करना अनिवार्य है, तब तो कोई भी साधक प्रमाद से कैसे बच सकता है? इसका समाधान यह है-इन्द्रियों को विषयों में और मन को भावों में प्रवृत्त करते समय यदि राग-द्वेष या काम, मोह, क्रोधादि कषाय नहीं होता है, तो प्रमाद नहीं कहलायेगा। इन्द्रियों के द्वारा विषयों में प्रवृत्ति होने के साथ मन को प्रियता-अप्रियता, अच्छी-बुरी आदि पंचायत मत करने दीजिए। मन को उससे मत जोड़िये। तभी अप्रमाद कहलायेगा।
अप्रमाद-संवर के लिए : इन्द्रियों के उपयोग में सावधान रहें अर्थात् जितेन्द्रियता का अभ्यास करने से व्यक्ति इस प्रकार के प्रमाद से बच सकता है। जितेन्द्रिय का लक्षण है-"जो व्यक्ति सुनकर, स्पर्श करके, देखकर, रखकर या सूंघकर न तो हर्षित होता है और न ही ग्लान (मूर्छित), उसे जितेन्द्रिय जानना चाहिए।"२ अतः प्रमाद-निरोध का सीधा-सा उपाय है-व्यक्ति इन्द्रियों से ऊपर उठकर जीए। ऐसा साधक इन्द्रियों से विभिन्न विषयों की जानकारी (ज्ञान) लेता है, पर उनसे रहता अलिप्त, अनासक्त, विरक्त या विमुख है। आँखों से देखना भी है और उन पर नियंत्रण (संयम या संवर) भी रखना है। जीभ. से बोलना और भोजन करना है किन्तु दोनों अवसरों पर जिह्वा पर संयम रखना है। शब्द सुनना है, वही जो सुनने योग्य हो, अवश्य श्रवणीय हो, परन्तु उसमें प्रिय-अप्रिय नहीं जोड़ना है। दोनों बातें एक साथ करना है बड़ा कठिन काम, परन्तु यह शक्य है, अशक्य नहीं है। यही अप्रमाद-संवर की एक शीघ्र अशुभ निरोधात्मक साधना-पद्धति है। इसमें इन्द्रियों से, मन से, शरीर से काम अवश्य लेना है, परन्तु उनके पंपचों में नहीं फँसना है। प्रायः इन्द्रियाँ सदैव ‘यह चाहिए, वह चाहिए' ऐसी चाहों से घिरी रहती हैं, साथ में मन जुड़ जाता है। तब ‘जो
१. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र का प्रमादस्थान नामक ३२वाँ अध्ययन २. श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः। . न हृष्यति न ग्लायति स विज्ञेयो जितेन्द्रियः।।
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