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मनुष्य के चतुर्थ से सप्तम गुणस्थान तक' देवायु का ही बन्ध होता है। अष्टमादि गुणस्थानों में आयुकर्म का बन्ः। नहीं होता। साक्षी के आक का बन्ध नहीं होता। भोगभूमिज तथा कुभोगभूमिज मनुष्य और तिर्यचों के नियम से देवायु का बन्ध होता है। सप्तम् नरक के नारकी के एक तिर्यंच आयु का ही बन्ध होता है। शेष नरक के नारकियों तथा बारहवें स्वर्ग तक के देवों के मनुष्यायु और तिर्यंचायु बन्ध योग्य है। तेरहवें स्वर्ग से लेकर सर्वार्थ सिद्धि तक के देव नियम से मनुष्यायु का ही बन्ध करते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव नियम से तिर्यच आयु का बन्ध करते हैं। नरक से निकला हुआ जीव न एकेन्द्रिय होता है और न विकलत्रय; परन्तु दूसरे स्वर्ग तक का देव तेजस्कायिक और वायुकायिक को छोड़ शेष एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो सकता है, पर
१. सप्तम गुणस्थान में बन्ध निष्टापन ही है। तथा जो श्रेणी बनने के सन्मुख नहीं है ऐसे स्वस्थान अप्रमत्त के ही अन्त समय में युधिति होती है। दूसरे सातिशय अप्रमत्त के बन्य नहीं होता अतएव व्युनिति भी नहीं होती।
अप्रमत्त संयत के काल के संख्यात बहुभाग (अथवा संख्यातवें भाग) बीतने पर देवायु का बन्ध व्युच्छेद हो जाता है। (धवल ८/३०२, ३०, ३५३. ३७१ आदि) अर्थात् घरम समययती अप्रमत्त तो अबन्धक ही रहता है।
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