Book Title: Karananuyoga Part 2
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 106
________________ 3. जिस कर्म की उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण और संक्रमण चारों ही अवस्थाएँ न हो सकें उसे निकाचित करण कहते हैं। २४३. प्रश्न : सम्यक्त्यादिक की विराधना कितनी बार हो सकती हैं ? उत्तर : प्रथमोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व देशव्रत और अनन्तानुबंधी की विसंयोजना विधि, इन चारों को यह जीव अधिक से अधिक पल्य के असंख्यातवें भाग के जितने समय हैं उतनी बार छोड़ छोड़कर पुनः पुनः ग्रहण कर सकता है। पश्चात् सिद्धपद को नियम से प्राप्त करता है । २४४ प्रश्न : यह जीव अधिक से अधिक उपशम श्रेणी कितनी बार चढ़ सकता है ? उत्तर : उपशम श्रेणी पर जीव एक पर्याय में अधिक से अधिक दो बार और सब पर्यायों की अपेक्षा चार बार चढ़ सकता है । पश्चात् कर्मों का क्षय कर मोक्ष प्राप्त करता है । क्षपक श्रेणी एक बार ही प्राप्त होती है। उसी एक श्रेणी 'से कर्म क्षय कर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। (१०१)

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