Book Title: Karananuyoga Part 2
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

Previous | Next

Page 111
________________ उत्तर : दर्शन विशुद्धि, विनय संपन्नता, शील और व्रतों में अतिचार नहीं लगाना, अभीक्षण ज्ञानोपयोग, . संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधु समाधि, वैयावृत्य, अर्हद्भक्ति, आचार्य भक्ति, बहु श्रुतभक्ति, प्रवचन भक्ति, आवश्वनापरेप सदश्मल किमाने में कमी नहीं करना) मार्ग प्रमावना और प्रवचन वत्सलत्व, ये सोलह भावनाएँ तीर्थकर प्रकृति के प्रत्यय हैं। २६५. प्रश्न : गोत्र कर्म के प्रत्यय क्या हैं ? उत्तर : दूसरों की निन्दा, अपनी प्रशंसा, दूसरों के विद्यमान गुणों का लोप करना और अपने अविद्यमान गुणों का प्रकट करना नीच गोत्र कर्म के प्रत्यय हैं तथा इनसे विपरीत परिणति उच्च गोत्र के प्रत्यय हैं। २६६. प्रश्न : अन्तराय कर्म के प्रत्यय क्या हैं ? उत्तर : किसी के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न करना अन्तराय कर्म के प्रत्यय हैं। २६७. प्रश्न : गुणहानि किसे कहते हैं ? उत्तर : जिसमें गुणाकार रूप हीन हीन द्रव्य पाये जाते हैं उन्हें गुणहानि कहते हैं। आबाधा काल पूर्ण होने पर समय (१०६)

Loading...

Page Navigation
1 ... 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125