Book Title: Karananuyoga Part 2
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 56
________________ १५०. प्रश्न : ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ किन्हें कहते हैं और वे कितनी तथा कौन-कौन है ? उत्तर : बन्ध च्युच्छित्ति पर्यंत जिनका निरन्तर बन्ध होता रहता है उन्हें ध्रुव बन्धी प्रकृतियाँ कहते हैं। वे ४७ हैं जैसेमोहनीय के बिना तीन घातिया कर्मों की १६ प्रकृतियाँ (५+६+५=१६) मिध्यात्ल, अनन्तानबन्धी चतुष्क आदि १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और अभेद विवक्षा से वर्णादि की ४। इनका अपनी अपनी बन्ध व्युच्छित्ति के गुणस्थान तक निरन्तर बन्ध होता रहता है। इनके सिवाय शेष रही ७३ प्रकतियाँ अध्रव बन्धी है। इनमें सादि और अध्रुव- दो ही बन्ध होते हैं। १५१. प्रश्न : अध्रुवबन्धी प्रकृतियों में सप्रतिपा और अप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ कौन-कौन है ? उत्तर : तीर्थकर आहारक युगल, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत और चारों आय ये ११ प्रकृतियाँ अप्रतिपक्ष-विरोधी रहित हैं अर्थात् जिस समय इनका बन्ध होता है उस समय होता ही है, और न होवे तो नहीं होता। बाकी ६२ प्रकृतियाँ सप्रतिपक्षी हैं-विरोधी सहित हैं जैसे सातावेदनीय (५१)

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