Book Title: Karananuyoga Part 2 Author(s): Pannalal Jain Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain MahasabhaPage 63
________________ बन्ध चतुर्थ से लेकर अष्टम् गुणस्थान तक होता है तथा आहारक युगल का बन्ध सप्तम् अष्टम् में होता है, अतः , तीन प्रकृतियाँ प्रथम गुणस्थान में अबन्धनीय होने से कम हो गई । फलस्वरूप प्रथम गुणस्थान में बन्ध व्यच्छित्ति १६ की, बन्ध ११७ का और अबन्ध ३ का है। प्रथम गुणस्थान की व्युच्छिन्न १६ प्रकृतियाँ घट जाने से द्वितीय गुणस्थान में बन्ध योग्य १०१ प्रकृतियाँ रह गई अतः बन्ध व्युच्छित्ति २५ की, बन्ध १०१ का और अबन्ध १६+३-१६ का है। द्वितीय गुणस्थान की व्युच्छिन्न २५ प्रकृतियाँ कम हो जाने से ७६ रहीं पर तृतीय गुणस्थान में आयु का बन्ध नहीं होता अतः २ प्रकृतियाँ और कम हो गई। इस तरह तृतीय गुणस्थान में बन्ध व्युच्छित्ति शून्य । की, बन्ध ७४ का और अबन्ध १६+२५+२=४६ का है। चतुर्थ गुणस्थान में मनुष्यायु, देवायु और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होने लगता है अतः बन्ध ७४+३=७७ का है। ' बन्ध व्युच्छित्ति १० की, बन्ध ७७ का और अबन्ध ४६-३-४३ का है। चतुर्थ गुणस्थान की व्युच्छिन्न १० प्रकृतियाँ घट जाने से पंचम् गुणस्थान में बन्ध ६७ का, बन्धु व्युच्छित्ति ४ की और अबन्ध ४३+१०=५३ का है। पंचम् गुणस्थान से व्युच्छिन्न ४ प्रकृतियाँ घट जाने से छठेPage Navigation
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