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बन्ध होने पर उस पर्याय में अणुव्रत और महाव्रत नहीं होते । तात्पर्य यह है कि अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान में नाना जीवों की अपेक्षा भुज्यमान आयु के साथ चारों आयु की सत्ता हो सकती है। विशेषता यह है कि देव और नरकगति में मनुष्य और तिर्यच आयु का ही बन्ध होगा तथा मनुष्य और तिर्यचों के चारों आयु संबंधी बन्ध हो सकता है। नवीन आयु का बन्ध हो जाने पर एक जीव के बध्यमान और भुज्यमान के भेद से दो आयु की सत्ता हो जाती है। नवीन आयु के बन्ध के पहले एक भुज्यमान आयु की ही सत्ता रहती है। क्षपक श्रेणी वाला जीव तद्भव मोक्षमागी होता है, अतः उसके नवीन आयु का बन्ध नहीं होता। मात्र एक भुज्यमान मनुष्यायु की सत्ता रहती है। उपशम श्रेणी वाला यदि बद्धायुष्क है तो उसके भुज्यमान मनुष्यायु और बध्यमान देवायु इन दो आयु की सत्ता होगी और अबद्धायुष्क है तो मात्र एक भुज्यमान मनुष्यायु की ही सत्ता होगी। क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कर्मभूमिज मनुष्य को चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सप्तम् गुणस्थान तक होती है उसके अनन्तानुबंधी चतुष्क और मिथ्यात्व, सम्यक्मिध्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृति इन सात प्रकृतियों का क्षय हो जाता है।
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