Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
प्रस्तुत अध्ययन सम्यग्ज्ञान का हेतु होने से तथा परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला होने से स्वयमेव मंगलरूप है तथापि 'श्रेयांसि बहुविनानि' के अनुसार विघ्नों की उपशांति के लिए तथा शिष्य की बुद्धि में मांगलिकता का ग्रहण कराने के लिए शास्त्र में मंगल करने की परिपाटी है। इस शिष्टाचार के पालन में ग्रंथ के आदि, मध्य और अंत में मंगलाचरण किया जाता है। आदि मंगल का उद्देश्य ग्रंथ की निर्विघ्न समाप्ति और शास्त्रार्थ में होने वाले विघ्नों से पार होना है। मध्य मंगल उसकी स्थिरता के लिए है तथा शिष्य-प्रशिष्य परम्परा तक ग्रंथ का विच्छेद न हो, इसलिए अंतिम मंगल किया जाता है। . प्रस्तुत अध्ययन में 'इह खलु जिणमयं' आदि मंगल है। प्रथम सूत्र में आया हुआ जिणमयं - जैन सिद्धांत पद विशेष्य है और जिणाणुमयं से लगा कर जिणपसत्यं तक के पद जिणमयं - जिनमत के विशेषण है। इन विशेषणों द्वारा जैनमत की महिमा एवं गरिमा का वर्णन किया गया है। इन विशेषणों से विशिष्ट "जिनमत' की औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों द्वारा सम्यक् पर्यालोचन करके उस पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखने वाले स्थविर भगवंतों ने 'जीवाजीवाभिगम' इस सार्थक नाम वाले अध्ययन का प्ररूपण किया है। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में मंगलाचरण की शिष्य परिपाटी का निर्वाह करते हुए ग्रंथ की प्रस्तावना बताई गई है।
जीवाजीवाभिगम का स्वरूप से किं तं जीवाजीवाभिगमे? जीवाजीवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- जीवाभिगमे य अजीवाभिगमे य॥२॥ भावार्थ - जीवाजीवाभिगम क्या है?
जीवाजीवाभिगम दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - १. जीवाभिगम और २. अजीवाभिगम।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जीवाजीवाभिगम का स्वरूप बतलाया गया है। जीवाजीवाभिगम, जीवाभिगम और अजीवाभिगम स्वरूप वाला है। अभिगम का अर्थ है - बोध या ज्ञान । जीव द्रव्य का ज्ञान जीवाभिगम है और अजीव द्रव्य का ज्ञान अजीवाभिगम है। इस संसार में मुख्यतः दो ही तत्त्व हैंजीव तत्त्व और अजीव तत्त्व। शेष तत्त्व इन दो ही तत्त्वों का विस्तार हैं। अतः शास्त्रों में जीव और अजीव के स्वरूप के विषय में विस्तार से वर्णन किया गया है। जीव और अजीव के भेद ज्ञान से ही सम्यग्दर्शन होता है और सम्यग्दर्शन के पश्चात् सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से मुक्ति होती है अतः जीवाभिगम और अजीवाभिगम परम्परा से मुक्ति का कारण है।
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