Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 20
________________ पढमा दुविह पडिवत्ती द्विविधाख्या प्रथम प्रतिपत्ति इह खलु जिणमयं, जिणाणुमयं, जिणाणुलोमं, जिणप्पणीयं, जिणपरूवियं, जिणक्खायं, जिणाणुचिण्णं, जिणपण्णत्तं, जिणदेसियं, जिणपसत्थं अणुव्वीइय तं सहहमाणा, तं पत्तियमाणा, तं रोएमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमं णाममज्झयणं पण्णवइंस॥१॥ ... कठिन शब्दार्थ - जिणमयं - जिनमत-जिन अर्थात् वर्तमान तीर्थंकर (शासनाधिपति) वर्धमान स्वामी का मत अर्थात् आचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक समस्त द्वादशांग रूप गणिपिटक, जिणाणुमयं - जिनानुमत-सभी तीर्थंकरों द्वारा अनुमत, जिणाणुलोमं - जिनानुलोम अर्थात् जिनों के लिए अनुकूल, ज़िणप्पणीयं- जिन प्रणीत, जिणपरूवियं - जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित, जिणक्खायं - जिनाख्यात-जिनेश्वर द्वारा साक्षात् वचन योग द्वारा कहा हुआ, जिणाणुचिण्णं - जिनानुचीर्ण-गणधरों द्वारा आसेवित, जिणपण्णत्तं - जिनप्रज्ञप्त-गणधरों द्वारा रचित, जिणदेसियं - जिनदेशित, जिणपसत्थं - जिन प्रशस्त, अणुव्वीइय - पर्यालोचन (विचार) कर, सहहमाणा - श्रद्धा करते हुए, पत्तियमाणा - प्रतीति करते हुए, . रोएमाणा - रुचि रखते हुए, पण्णवइंसु - प्ररूपित किया। भावार्थ - इस मनुष्य लोक में अथवा जिन प्रवचन में जिनमत-तीर्थंकर भगवान् के सिद्धान्त रूप द्वादशांग गणिपिटकं का जो जिनानुमत-अन्य सब तीर्थंकरों द्वारा अनुमत है, जिनानुलोम-जिनों (अवधि जिन, मन:पर्याय जिन और केवलजिन) के लिए अनुकूल है, जिन प्रणीत है, जिन प्ररूपित है, जिनाख्यात है, जिनानुचीर्ण है, जिनप्रज्ञप्त है, जिनदेशित है, जिनप्रशस्त है, पर्यालोचन कर उस पर श्रद्धा करते हुए, उस पर प्रतीति करते हुए, उस पर रुचि रखते हुए स्थविर भगवंतों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन प्ररूपित किया है। विवेचन - जीवों और अजीवों का अभिगम अर्थात् परिच्छेद-ज्ञान जिसमें हो या जिसके द्वारा हो वह जीवाजीवाभिगम है। अर्थ की अपेक्षा तीर्थंकर परमात्मा ने जीवाजीवाभिगम कहा है और सूत्र की अपेक्षा गणधरों ने कहा है। इसके पश्चात् भव्य जीवों के हित के लिये अतिशय ज्ञान वाले चतुर्दश पूर्वधरों ने स्थानांग नामक तीसरे अंग से लेकर पृथक् अध्ययन के रूप में इस जीवाजीवाभिगम का कथन किया अतः यह तीसरा उपांग कहा गया है। स्थविर भगवंतों द्वारा प्ररूपित होने के कारण प्रस्तुत सूत्र में "थेरा भगवंतो पण्णवइंसु" कहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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