Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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VI
प्राक्कथन
डॉ. (कु.) आराधना जैन द्वारा मुनिश्री ज्ञानसागर विरचित "जयोदय महाकाव्य के अनुशीलन" का परिचय विद्वत्समाज को प्रस्तुत करते हुये मुझे असीम आनन्द का अनुभव हो रहा है । मुनि श्री जी वास्तव में ज्ञान-सागर हैं । उन्होंने साहित्य को अनेक दिशाओं से समृद्ध किया है। संस्कृत में भी लिखा है और हिन्दी में भी । गद्य में भी लिखा है और पद्य में भी, एवञ्च चम्पू के रूप में गद्य और पद्य दोनों के सम्मिश्रण में भी । मौलिक भी लिखा है और अनुवाद भी । इस तरह उन्होंने एक विशाल वाङ्मय की सृष्टि की है । ऐसे महामनीषी के समस्त कृतित्व पर शोध अपेक्षित है, पर जब तक वह नहीं हो पाता, तब तक एक-एक करके उनकी कृतियों -विशेषकर मौलिक कृतियों के सौन्दर्य और महत्त्व को उजागर कर विद्वत्समाज का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट किया जा सकता है । इसी तरह का ही एक कार्य किया है डॉ. (कु.) आराधना जैन ने | उन्होंने उनकी जयोदय नाम की कृति पर शोध किया है, जिस पर उन्हें बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल (म.प्र.) ने पीएच.डी. की उपाधि प्रदान की है.। उनके शोधप्रबन्ध में जयोदय का सर्वाङ्गीण विवेचन है । सर्वप्रथम उन्होंने उसकी कथा का सार प्रस्तुत किया है । तत्पश्चात् जिन-जिन स्रोतों से वह ली गई है, उसका उल्लेख कर मूलकथा में परिवर्तन के औचित्य को सिद्ध किया है । तत्पश्चात् काव्य में उक्तिवक्रता, व्यञ्जना और ध्वनि पर प्रकाश डालते हुए उसके मुहावरों एवञ्च उसकी लोकोक्तियों तथा सूक्तियों का व्याख्या सहित सङ्कलन कर काव्यगत अलङ्कारों और बिम्बों का विवेचन किया है।
___मुनिश्री ज्ञानसागर जी ने अपने काव्य में कथानक की प्रस्तुति इस ढंग से की है कि वह अत्यन्त रोचक एवं हृदयग्राही बन गया है । एक ही पात्र के अनेक पूर्वजन्मों एवञ्च तद्गत कार्यकलापों के वर्णन की दुरुहता को उन्होंने सरस काव्यशैली द्वारा दूर करने का सफल प्रयास किया है । जिसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली है।
__ मुनिश्री का शब्दकोश अत्यन्त समृद्ध है । उस कोश में से कभी-कभी वे ऐसे शब्द भी निकाल लाते हैं जो कदाचित् आज के पाठक के लिये सुपरिचित नहीं हैं । यथा तरस् = गुण, रोक = प्रभा, संहिताय = हितमार्ग, ऊषरटक = रेतीला, रसक = चर्मपात्र आदि । उनकी वाणी स्थान-स्थान पर अनुप्रास से सुसज्जित है । कहीं-कहीं तो पदशय्या इस प्रकार की है, कि लगता है एक साथ कई घण्टियाँ बजने लगती हों-'अनुभवन्ति भवन्ति भवान्तकाः; नाथवंशिन इवेन्दुवंशिनः, ये कृतोऽपि परपक्षशंसिनः ।' अन्त्यानुप्रास तो मानों उनके लिए काव्यक्रीड़ा है | काव्य के लगभग हर श्लोक को उसने आलोकित किया है ।