Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन . "जयकुमार ने सुन्दरांगी सुलोचना का उसी प्रकार प्रेम से पान किया जैसे मुमुक्षुवृन्द अध्यात्म विद्या को पीते हैं, भ्रमर कमलपंक्ति को पीता है और चकोर पक्षी चन्द्रमा की कला का पान करता है" -
अध्यात्मवियामिव भव्यवृन्दः,
सरोजरानिं मधुरां मिलिन्दः। प्रीत्या पपौ सोऽपि तकां सुगौर -
गाी यथा चन्द्रकलां चकोरः ॥ १०/११८॥ "राजा जयकुमार श्री जिनेन्द्रदेव के अमृतवत् निर्दोष रूप का पान कर इतने स्थूल हो गये कि जिनालय से बाहर निकलने में असमर्थ रहे"
जिनेशरूपं सुतरामदुष्टमापीय पीयूषमिवाभिपुष्टः ।
पुनश्च निर्गन्तुमशक्नुवानस्ततो बभूवोचितसंविधानः ॥ २४/९७॥ ___ "गृहस्थों के शिरोमणि जयकुमार ने गुरुदेव के वचनामृत का पान किया और हृदय में उनके पवित्र चरणों को प्रतिष्ठित किया ।"
सन्निपीय वचनामृतं गुरोः सन्निपाय हदि पूततत्पदे । २/१३९ पूर्वार्ष । मिन पदायों में अभेद का आरोप
देहयष्टि और कामदेव की सेना में अभेद का आरोप देह के अत्यन्त आकर्षक एवं कामोद्दीपक होने का सशक्त व्यंजक बन गया है -
"इसकी देहयष्टि तो कामदेव की सेना प्रतीत होती है।"
___ "दृश्यते तनुरेतस्याः पुपचापपताकिनी॥" ३/५३ उत्तरार्थ निम्न उक्ति में कटुक पद का प्रयोग जयोदय के प्रतिनायक अर्ककीर्ति के चारित्रिक वैशिष्ट्य को निरूपित करता है -
___ "सुलोचना के पिता उत्तम पुरुष हैं । जयकुमार भी महामना हैं, मात्र अर्ककीर्ति कड़वा है।" .
भुवि सुवस्तु समस्तु सुलोचनाजनक एष जयश्च महामनाः ।
अयि विचक्षण लक्षणतः परं कटुकममिमं समुदाहर ॥ ९/८४॥ निम्न पद्य में मुख और चन्द्र में अभेदारोप द्वारा मुख के सौन्दर्यातिशय की, शृंगाररस और सागर में अभेदारोप के द्वारा शृंगाररस के अतिरेक की तथा स्तनों और पर्वत में अभेदारोप द्वारा स्तनों के अत्यन्त उभार की प्रभावशाली व्यंजना की गई है -
"जयकुमार की दृष्टि ने जैसे ही सुलोचना के मुखचन्द्र का अवलोकन किया वैसे ही शृंगाररस के सागर में ज्वार आया और वह शीघ्र ही उन्नत स्तनरूपी पर्वत पर जा पहुँची।" .