Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
View full book text
________________
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
१४५ , दिन अपने स्वामी सूर्य के साथ ही विलीन हो जाता है । “निःस्वार्थ व्यक्ति प्राणों का त्याग करके भी कृतन्त्रता का निर्वाह करते हैं" (ये अमलाः ते असुभ्योऽपि कृतन्नतां निर्वहन्ति)
लयं तु भव समं समेति दिनं दिनेशेन महीयसेति ।
कृतज्ञतां ते खलु निर्वहन्ति तमामसुभ्योऽप्यमलास्तु सन्ति ॥ १५/३
हाथियों ने गंगा नदी का जितना जल पिया, उससे भी अधिक जल मदजल के बहाने वापिस कर दिया । "कुलीनवंशी प्रत्युपकार शून्य नहीं होते" (वंशिनः प्रत्युपकारशून्याःन)
यावनिपीतं जलमापगायास्ततोऽधिकं तत्र समर्पितञ्च ।
मतङ्जेन्द्रनिजदानवारि न वंशिनः प्रत्युपकारशून्याः ॥ १३/१०५
कहीं पर सूक्तियाँ पात्रों के जीवन की सुख-दुःखात्मक घटनाओं के उदाहरणों द्वारा संसार के सुख-दुःखात्मक स्वरूप की ओर ध्यान आकृष्ट करती हैं -
राजा जयकुमार एक दिन अपनी रानियों के साथ महल की छत पर बैठे थे । वे आकाशमार्ग से जाते हुए विद्याधर के विमान का अवलोकन कर मूर्छित हो जाते हैं । कुछ समय पश्चात् रानी सुलोचना आकाशमार्ग में कपोतयुगल देख मूर्छित हो जाती है । यह घटना प्रजावर्ग के लिए उसी प्रकार अत्यन्त कष्टदायक प्रतीत होती है जैसे कोढ़ में खाज हो गई हो । “यह संसार दुःख स्वरूप है" (भवसम्भवावनिर्दुरन्ता) -
अभूत सभाया मनसोऽतिकम्पकृत्तदत्र कष्टेऽप्यतिकष्टमिष्टहत् ।
यौव कुष्ठे खलु पामयाऽजनि अहो दुरन्ता भवसंभवावनिः ॥ २३/२०
कवि ने सूक्तियों का प्रयोग उपदेशों के औचित्य का प्रतिपादन करने के लिए भी किया है -
मुनिराज जयकुमार को गृहस्थ धर्म का उपदेश देते हुए कहते हैं - सज्जन को अर्थशास्त्र का अध्ययन करना चाहिए जिससे वह समाज में प्रतिष्ठित जीवन व्यतीत कर सके। “निर्धनता मरण से भी भयंकर है" (व्यर्षता हि मरणाद् भयंकरा) -
अर्थशास्त्रमवलोकयेदृराट् कौशलं समनुभावयेत्तराम् ।
श्रीपासु पदवीं व्रजेत्परां व्यर्षता हि मरणास्वयंडरा ॥ २/५९
मनुष्य को आयुर्वेद का अध्ययन करना चाहिए जिससे वह शरीर को स्वस्थ्य रखते हुए सुखी जीवन व्यतीत कर सके और उसके हितैषियों का मन प्रसन्न रहे । "शरीर ही सभी तरह के सुखों का मूल है" (इह अझं आयं सौख्यसाधनम्) -