Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
View full book text
________________
१९२
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन मात्सर्यमुत्सार्य विचार्य कार्य - मार्याः समयदिमिदं वदन्तु । सेव्या नितम्बा किमु भूधराणा -
मुत स्मरस्मेर विलासिनीनाम् ॥ - इस पद्य में "र्य" की अनेकशः आवृत्ति से लयात्मक श्रुतिमाधुर्य की सृष्टि होती
thc
एको देवः केशवो वा शिवो वा, एकं मित्रं भूपतिर्वा पतिर्वा । एको वासः पत्तने वा वने वा,
एका नारी सुन्दरी का दरी वा ॥ यहाँ केशव और शिव, भूपति और यति, पत्तन और वन, तथा सुन्दरी और दरी का वर्णसाम्य (यमक) उनको अलग-अलग दृष्टियों से समकक्षता के भाव को साकार करने में अभूतपूर्व योगदान करता है। यही बात निम्न पद्य में भी है :
भक्तिभवन विभवं व्यसनं शास्त्रे न युवतिकामाश्ने ।
चिन्ता यशसि न वपुषि प्रायः परिदृश्यते महताम् ॥ भर्तृहरि के शृंगार-शतक का यह श्लोक पमकजन्य श्रुतिमाधुर्य से मण्डित है :
आवासः क्रियतां गाङ्गे पापवारिणि वारिणि ।
स्तन्मध्ये तरुण्या वा मनोहारिणि हारिणि ॥ जयोदय में वर्णविन्यासक्रता
महाकवि ज्ञानसागर ने जयोदय में वर्णविन्यासवक्रता के द्वारा विविध प्रभावों की सृष्टि की है । काव्य में नादसौन्दर्य एवं लयात्मक श्रुतिमाधुर्य की उत्पत्ति, माधुर्य एवं ओज गुणों की व्यंजना, वस्तु की कोमलता, कठोरता आदि के द्योतन एवं भावों को घनीभूत करने में कवि ने वर्णविन्यासवक्रता का औचित्यपूर्ण प्रयोग किया है । वर्णविन्यासवक्रता के निम्न प्रकार प्रस्तुत महाकाव्य में प्रयुक्त किये गये हैं :- छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास, श्रुत्यनुप्रास, अन्त्यानुप्रास, यमक तथा माधुर्यव्यंजक एवं ओजोव्यंजक वर्णविन्यास निदर्शन प्रस्तुत हैं :
१. भर्तृहरि, शृंगार शतक २. भर्तृहरि, नीति शतक, ६९