Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 277
________________ २१९ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन कोई वस्तु कितनी सुन्दर या कुरूप है, किसी मनुष्य का चरित्र कितना उत्कृष्ट या निकृष्ट है, किसी व्यक्ति की प्रकृति कितनी मधुर या कटु, सरल या कुटिल है, किसी का क्रोध कितना तीव्र, प्रेम कितना उत्कट, घृणा कितनी गहन, मनोदशा कितनी द्वन्द्वात्मक, परिस्थिति कितनी बिडम्बनापूर्ण, पीड़ा कितनी मन्तिक, सुख कितना असीम है, इसकी प्रतीति उपचारवक्रता, अलंकार विधान, प्रतीकयोजना आदि वक्रोक्तियों से ही संभव होती है । सौन्दर्य की अलौकिकता अथवा असौन्दर्य की पराकाष्ठा, मानवचरित्र की पराकाष्ठा या उसकी निष्कृष्टता, प्रेम की उत्कटता, घृणा की गहनता, हर्ष के अतिरेक, विषाद की सघनता आदि के अनुभव से हृदय उद्वेलित एवं रसमन होता है, दूसरी ओर उक्ति के वैचित्र्य से कथन में रमणीयता की अनुभूति होती है । जयोदयकार ने उक्त शैलीय तत्त्वों के समुचित प्रयोग से सौन्दर्यादि तत्त्वों की अलौकिकता, प्रेमादि भावों की उत्कटता, क्रोधादि विकारों की उग्रता, मानवचरित्र की उदात्तता आदि को आस्वादन का विषय बनाकर सहदय हृदय को रसमग्न एवं भावमन करने और उक्तिवैचित्र्यजनित रमणीयता का अनुभव कराने में पर्याप्त सफलता पायी है। उपचारवक्रता के अन्तर्गत कवि ने मुख्यतः मानव पर तिर्यञ्च के धर्म का आरोप अचेतन पर चेतन के धर्म का, चेतन पर अचेतन के धर्म का, अमूर्त पर मूर्त के धर्म का, तथा एक चेतन पर दूसरे चेतन एवं एक अचेतन पर दूसरे अचेतन का आरोप किया है, अर्थात् उनमें अभेद दर्शाया है । इस उक्तिवैचित्र्य से उन्होंने क्रोध, प्रेम, सन्ताप, भक्ति आदि मनोभावों के अतिशय की व्यंजना का चमत्कार दिखलाया है । वस्तु की सुन्दरता, सुखदता एवं दुःखदता की पराकाष्ठा के द्योतन में निपुणता प्रदर्शित की है एवं रूपादि के अवलोकन एवं वचनादि के श्रवण में मनुष्य जो कभी-कभी तल्लीनता की चरम अवस्था में पहुँच जाता है, उसका साक्षात्कार कराने में कवि अद्भुत रूप से सफल हुआ है। .... ....कवि के द्वारा प्रयुक्त मुहावरों को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है : वक्रक्रियात्मक, वक्रविशेषणात्मक, निदर्शनात्मक, अनुभावात्मक, उपमात्मक एवं रूपकात्मक मुहावरों के प्रयोग द्वारा महाकवि ने अभिव्यक्ति को रमणीय बनाते हुए पात्रों के मनोभावों एवं मनोदशाओं के स्वरूप, चारित्रिक विशेषताओं, वस्तु के गुण-वैशिष्ट्य, कार्य के औचित्य-अनौचित्य के स्तर तथा घटनाओं एवं परिस्थितियों की गम्भीरता को अनुभूतिगम्य बनाया है और इसके द्वारा सहृदय को भावमग्न एवं रससिक्त करते हुए जयोदय में काव्यत्व के प्राण फूंके हैं। ..

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