Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 282
________________ २२४ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन संस्कृत-भक्तियाँ 'पूज्यानां गुणेष्वनुरागो भक्तिः' पूज्य पुरुषों के गुणों में अनुराग होना भक्ति है । मन की चंचल चित्तवृत्तियों को रोकने, उन्हें शान्त करने, मन को एकाग्र करने के लिए भक्त पूज्य पुरुषों की भक्ति किया करते हैं । महाकवि ने इसी प्रयोजन से भक्तियों का सृजन किया है । उनके द्वारा रचित उपलब्ध भक्तियाँ इस प्रकार हैं - चैत्यभक्ति, शान्तिभक्ति, तीर्थंकरभक्ति, चतुर्विंशतिस्तुति, सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, चारित्रभक्ति, आचार्यभक्ति, श्रुतभक्ति, योगिभक्ति, परमगुरुभक्ति, कायोत्सर्गभक्ति तथा समाधिभक्ति | आपने इन्हीं संस्कृत भक्तियों का हिन्दी पद्यानुवाद भी सरल किन्तु मनोहारी भाषा में किया है । सिद्धभक्ति, चतुर्विंशति जिनस्तुति, चैत्यभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, आचार्यभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, तीर्थंकरभक्ति का पद्यानुवाद उपलब्ध हुआ है । आत्म-कल्याण के पथ पर अग्रसर मुनि एवं आर्यिकाएँ दैवसिक चर्या और क्रियाकलापों के अवसर पर निश्चित भक्तिपाठ करते हैं। महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी के द्वारा विरचित भक्तियों में आत्मसमर्पण, आत्मनिवेदन और तीर्थंकर, आचार्य आदि का गुण स्तवन है । निम्न पद्य में कवि का आत्मालोचन दर्शनीय है अतोऽधुना हे जिनप ! त्वदने प्रमादतोऽबानितयासमो। कृत्ये ममाभून्यक्नं तदेतत्सम्प्राय॑ते नाथ ! मृषा क्रियेत ॥ चराचराणामपि स प्रपञ्चं कृतं मया कास्तिमामतं च । विध्वंशनायत्रधरातले यत् सम्प्राय॑ते नाथ ! मृणा क्रियेत ॥ - प्रतिक्रमणभक्ति,२-३ । भक्ति के द्वारा भक्त एक ओर स्वकृत पापों का प्रायश्चित कर आत्मशान्ति प्राप्त करता है, वहीं दूसरी ओर वह पूज्य पुरुष के गुण स्तवन द्वारा उनके समान बनने की भावना भी रखता सिद्ध्यन्ति सेत्स्यन्ति पुरा च सिद्धाः स्वाभाविकमानतया समिद्धाः । भव्यानितस्तात्विकवर्पनेतुं नमामि तांश्चिद्गुगलमये तु ॥ सिद्धान्प्रसिद्धान्नसुकर्ममुक्तासम्यक्त्वबोपादिगुणायुक्तान् । भवाब्यितोनिस्तरणैकसेतून नमामि तौश्चिद्गुणलब तु ॥ - सिद्धभक्ति, १-२ लोक में गुरु/आचार्य का महत्त्व गोविन्द/भगवान् से भी अधिक है, क्योंकि वे ही हमारे सत्पथप्रदर्शक हैं - मुमुक्षुवर्गस्य पवीडितेन ये दुष्पवस्य प्रतियनेन । प्रवर्तनायोयतचित्तलेशाः संघस्य ते सन्तु मुदे गणेशाः ॥ आचार्य भक्ति,२ भक्तियों में भक्त कवि के हृदय से निःसत रस सरिता से प्रस्फुटित काव्यधारा का स्पर्शमात्र मद को विगलित कर देता है, दिग्भ्रमित मानव को नम्रता और विनयशीलता से भर देता है । राजसिक, तामसिक चित्तवृत्तियों को शान्त करता है तो सात्विक वृत्ति का स्वयमेव ही उदय हो जाता है और हृदय की विशुद्धि बढ़ती है । इस धारा में अवगाहन कर प्रत्येक सहृदय अलौकिक आनन्द की मस्ती में डूब जाता है। ___ महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा रचित भक्तियों में सर्वत्र प्रसाद का प्रसार, अनुप्रास की झंकार, निश्छल आत्मनिवेदन एवं गुणस्तवन दिखलाई देता है । यह कृति सम्पादन, प्रकाशन एवं पर्याप्त प्रचार-प्रसार की प्रतीक्षा में है।

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