Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 267
________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन २०९ गृहस्थ किसी कार्य के आरम्भ में भगवान् जिनेन्द्र का नाम लेकर अपने-अपने इष्टदेव का स्मरण,करें, तो निश्चय ही उसका कार्य सिद्ध होगा किन्तु सदाचार का उल्लंघन करने पर सिद्धि प्राप्त न होगी।' अरहन्त भगवान् के नामोच्चार मात्र से ही सारी विषबाधायें टल जाती हैं । जैसे सूर्य का आतप किसान के अन्न को पकाता है, वैसे ही अप्रकटरूप से भी भगवान् का चिन्तन अवश्य इष्टसिद्धि करता है । इसलिए भक्तजन तीनों सन्ध्याओं में जिन भगवान् का स्मरण करते रहें। गृहस्थ को चाहिए कि वह मन से सदैव भगवान् का स्मरण किया करे । पर्व के दिनों में तो उनकी विशेष रूप से भक्ति करे, क्योंकि गृहस्थ के लिए निर्दोष रूप से की गयी जिन-भगवान् की भक्ति ही मुक्ति दिलाने वाली होती है । स्वाध्याय बुद्धिमान् मनुष्य को अपनी बुद्धि परिष्कृत करने के लिए सरस्वती (जिनवाणी) की आराधना करनी चाहिए, क्योंकि शस्त्रधारी पुरुष अपने शस्त्र को शाण पर चढ़ाकर ही उसके प्रयोग में सफल होता है। शास्त्र प्रधानतया दो प्रकार के होते हैं - संहिताशास्त्र और सूक्तिशास्त्र । संहिता जन साधारण के विचारों को लक्ष्य में रखकर सांगोपांग वर्णन करने वाली होती है, इसलिये वह अपने विषय को, चाहे वह प्रशस्त हो या अप्रशस्त, सदैव स्पट करती है। सूक्तशास्त्र वह है जो सर्वसम्मत होता है । वह सदैव हितकर बातें ही कहता है और परमोपयोगी होता है। अतः वह अपने विषय के अप्रशस्त अंश को गौण करते हुए सदैव प्रशस्त अंश का ही वर्णन किया करता है। गृहस्थ व्यक्ति को चाहिए कि वह सबसे पहले जिसमें अपने करने योग्य कुलागत रीति रिवाजों का वर्णन हो, ऐसे उपासकाध्ययन-शास्त्रों का ही अध्ययन करे। क्योंकि अपने घर की जानकारी न रखते हुए दुनियों को खोजना अज्ञता ही होगी। इस भूतल पर श्रेष्ठ प्रसिद्धि को प्राप्त सत्पुरुषों के जीवनचरित का स्तवन करने पर गृहस्थ का दुःख दूर होता है और सुख प्राप्त होता है, क्योंकि अपना स्वच्छ या मलिन मुख दर्पण में देखा जा सकता है। मनुष्य समीचीन अवस्था, काल के नियम, अपनी संगति, शुभगति या शुभाशुभ परिवर्तन का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करने के लिए करणानुयोग-शास्त्रों का अध्ययन करे । क्योंकि सुवर्ण के खरे-खोटेपन की परीक्षा कसौटी पर ही की जाती है । इसके बाद १. जयोदय, २/३५ ५. जयोदय, २/४३ २. जयोदय, २/३६ ६. जयोदय, २/४४ . ३. जयोदय, २/३८ ७. जयोदय, २/४५ ४. जयोदय, २/४१ ८. जयोदय, २/४६ ९. जयोदय, २/४७

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