Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
२१५ समर्थन आयुर्वेदशास्त्र से होता हो) तथा स्वयं के लिए रुचिकर निरामिष भोजन अपने कुटुम्ब वर्ग के साथ एक पंक्ति में बैठकर किया करे । थाल में कुछ छोड़कर ही सब के साथ उठे। यह गृहस्थ की सामाजिक सभ्यता है। इन्हीं गृहस्थों में जो आर्षमार्ग का आदर करने वाला हो, जिसका हृदय सुदृढ़ हो और त्रिवर्ग मार्ग की ओर से हटकर जिसका झुकाव मोक्षमार्ग की ओर हो गया हो, ऐसा व्यक्ति पंक्ति भोज न करके अकेला ही शुद्ध भोजन करे और झूठन न छोड़े। तामसिक राक्षसाशन (मद्य मांसादिरूप भोजन) मानवता का नाशक है और पाशविक भोजन जो इन्द्रिय लम्पटता को लिये होता है, वह भी बिगाड़ करने वाला है। इन दोनों तरह के भोजन को मनुष्य दूर से ही छोड़ दे, क्योंकि समझदार मनुष्य अयोग्य स्थान में प्रवृत्ति कैसे कर सकता है ? न्यायपूर्वक धनार्जन
... जो मनुष्य की सब तरह की अभिलाषाओं का साधन है, अतएव जिसने अपने "अर्थ" नाम को सार्थक कर बताया है. और जो (१) कृपणता, (२) अर्जित करते ही व्यय कर देना, (३) मूल को भी नष्ट कर देना; इन तीनों दोषों से रहित है तथा तीर्थस्थानों के लिए सहज में लगाया जाता है, ऐसे अर्थ का मनुष्य अर्थानुबन्ध द्वारा अपने कुलयोग्य
आजीविका चलाते हुए अर्थ उपार्जन करे । निश्चय ही ऐसा करने वाला मनुष्य दुनियाँ में निरन्तर प्रतिष्ठा का पात्र बनकर सर्वथा प्रसन्नता का अनुभव करता है।" सायंजन परमात्मा का ध्यान
__ देशकाल के अनुसार सायंकाल तक समुचित प्रवृत्ति करनेवाले गृहस्थ को सायंकाल के समय चित्त को स्थिर करके परमात्मा का स्मरण करना चाहिये क्योंकि चित्त की स्थिरता ही पापों से बचाने वाली होती है ।५. सप्तव्यसन त्याग
मनुष्य को द्यूतक्रीड़ा, मांसाहार, मद्यपान, परस्त्रीसंगम, वेश्यागमन, शिकार, चोरी तथा नास्तिकता भी त्याग देना चाहिए, अन्यथा यह सारा भूमण्डल आपदाओं से घिर जायेगा। निःशंक होकर कुत्सित आचरण करने को विद्वानों ने नास्तिकता कहा है । जो सभी प्रकार के व्यवहारों का लोप कर देती है । वह अनेक संकटों की परम्परा खड़ी कर
१. जयोदय, २/१०७ २. वही, २/१०८ ३. वही, २/१०९
४. जयोदय, २/११० ५. वही, २/१२२ ६. वही, २/१२५