Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
१८३ ___ "भूसरसरिति” में “सरसरि" इस आवृत्त वर्ण समुदाय में स्वरों का असारूप्य है। .. (२) कृत्यनुप्रास
संयुक्त या असंयुक्त व्यंजन समूह (अनेक व्यंजनों) की अनेक बार सान्तर या निरन्तर आवृत्ति तथा एक व्यंजन की एक या अनेक बार सान्तर या निरन्तर आवृत्ति को वृत्पनुप्रास कहते हैं। इसके निम्न प्रभेद किये जा सकते हैं :
(क) संयुक्त या असंयुक्त वर्णयुगल की अनेक बार सान्तर आवृत्ति, (ख) संयुक्त या असंयुक्त वर्णयुगल की अनेक बार निरन्तर आवृत्ति,
एक वर्ण की एक बार सान्तर आवृत्ति, .. (घ) एक वर्ण की एक बार निरन्तर आवृत्ति,
एक वर्ण की अनेक बार सान्तर आवृत्ति, (च) एक वर्ण की अनेक बार निरन्तर आवृत्ति ।
(ग)
उदाहरण:
उन्मीलन्मपुगन्धतुबमापवाबूतचूताइकुर - क्रीडकोकिलकाकतीकतकतरुद्गीर्णकर्णज्वरः । नीयन्ते पविकः कर्ष कामपि ध्यानावपानक्षण -
प्राप्तप्राणसमासमागमरोल्लासेरमी वासराः॥' यहाँ द्वितीय चरण में "काकतीकलकतः" में असंयुक्त वर्णयुगल "क-ल" की अनेक बार निरन्तर आवृत्ति हुई है।
प्रथम चरण में एक व्यंजन “त्" की, तृतीय में "ध" की एक बार सान्तर आवृत्ति
प्रथम चरण में एक व्यंजन "म्" की, द्वितीय में "ल" की, तृतीय में "क" की तथा चतुर्य में “स्" और "म्" की अनेक बार सान्तर आवृत्ति हुई है।
"वाकवालविलोचनमोहवितरित यहाँ "काल' में एक व्यंजन "ज्" .
१. वक्रोक्तिजीवित, २/१६ २. अनेकस्यैकया साम्यमसकृताप्यनेकधा ।
एकस्य सकृवप्येष वृत्यनुप्रास उच्यते । साहित्यदर्पण, १०/४ ३. वही, १०/४ ४. वक्रोक्तिजीवित, २/९/१८०